Nagmati viyog khand vyakhya मलूक मुहम्मद जायसी द्वारा रचित महाकाव्य ‘पद्मावत’ का सर्वाधिक हृदयस्पर्शी और बहुचर्चित भाग है। हिन्दी साहित्य की यह एक अमर कृति है। इस आलेख में नागमती वियोग खंड की कुछ चौपाइयों को चुना गया है और उन चौपाइयों की विस्तृत व्याख्या और काव्य सौंदर्य पर प्रकाश डाला गया है।
Nagmati viyog khand vyakhya:
“कातिक सरद-चंद उजियारी । जग सीतल, हौं बिरहै जारी ॥
चौदह करा चाँद परगासा । जनहुँ जरैं सब धरति अकासा ॥
तम मन सेज करै अगिदाहू । सब कहँ चंद, खएउ मोहिं राहू ॥
चहूँ खंड लागै अँधियारा । जौं घर नाहीं कंत पियारा ॥
अबहूँ, निठुर ! आउ एहि बारा । परब देवारी होइ संसारा ॥
सखि झूमक गावैं अँग मोरी । हौं झुरावँ, बिछुरी मोरि जोरी ॥
जेहि घर पिउ सो मनोरथ पूजा । मो कहँ बिरह, सवति दुख दूजा ॥
सखि मानैं तिउहार सब गाइ, देवारी खेलि ।
हौं का गावौं कंत बिनु, रही छार सिर मेलि ॥8॥”
संदर्भ:
प्रस्तुत पद मलूक मुहम्मद जायसी द्वारा रचित महाकाव्य ‘पद्मावत’ के Nagmati viyog khand vyakhya नागमती वियोग खंड से लिया गया है। इस पद में रानी नागमती अपने पति रतनसेन के विरह में अत्यंत दुखी होकर अपने मनोभावों को व्यक्त कर रही हैं। इस समय राजा रतनसेन रानी पद्मावती से विवाह हेतु चित्तौड़ से सिंगलद्वीप गए हुए हैं और नागमती अकेली पड़ गई हैं। प्रस्तुत पद में उनके अंतर्मन का संताप, अकेलेपन की पीड़ा और सौतन के कारण दोगुने दुख की अनुभूति दिखाई देती है।
आप इसे क्लिक करके आदिकालीन विशेषताएँ पढ़ सकते हैं।
व्याख्या:
शरद पूर्णिमा की चाँदनी रात है, चारों ओर शीतलता छाई हुई है, परंतु नागमती अपने विरह की आग में जल रही हैं। यह विरोधाभास उनकी वेदना को और भी गहरा और पीड़ादायक बना देता है। चंद्रमा अपनी चौदह कलाओं के साथ पूरे प्रकाश में है, जिससे पूरी धरती और आकाश जगमगा रहे हैं लेकिन नागमती को यह चाँद भी जलता हुआ प्रतीत हो रहा है। नागमती का मन पूर्ण अंधकारमय और दुःखी हो गया है, जैसे राहु ने चंद्रमा को ग्रस लिया हो। यहाँ राहु-ग्रहण का प्रयोग विरह की गहनता को दिखाने के लिए किया गया है। चारों दिशाओं में अंधकार छा गया है क्योंकि उनके प्रिय पति घर पर नहीं हैं। यह संसार के उजाले को भी अर्थहीन मानने की मानसिक अवस्था को दर्शाता है। नागमती अपने पति से कहती हैं। “अब भी समय है, आ जाओ! यह दीपावली का पर्व पूरे संसार के लिए आनंद का समय है लेकिन मेरे लिए नहीं।” सखियाँ दीपावली के गीत गा रही हैं, हँसी-खुशी में मग्न हैं लेकिन नागमती अपने पति के बिना अकेली बैठी सिसक रही हैं। जिस घर में पति हैं, वहाँ मनोरथ, पूजन और मंगलकार्य हो रहे हैं लेकिन जहाँ वह नहीं हैं, वहाँ केवल विरह का संताप और सौतन का दुख है। नागमती का दुख दोगुना हो गया है, एक तो विरह, दूसरा सौतन की कल्पना का जलन। सारी सखियाँ दीपावली मना रही हैं लेकिन नागमती सोचती हैं “मैं अपने पति के बिना क्या गाऊँ? मेरी हालत तो ऐसी है कि मैं राख सिर पर डालकर बैठी हूँ।” यहाँ नागमती के पूर्ण विरह, आत्मसमर्पण और हताशा को अत्यंत मार्मिक रूप में व्यक्त किया गया है।
अलंकार सौंदर्य:
- उपमा अलंकार: “चहूँ खंड लागै अँधियारा” यहाँ नागमती को अपने पति के बिना पूरा संसार अंधकारमय लग रहा है। रूपक अलंकार: “तम मन सेज करै अगिदाहू” नागमती का मन विरह के कारण अंधकारमय शैया बन गया है। विरोधाभास (विरोधालंकार): “जग सीतल, हौं बिरहै जारी” जहाँ पूरी दुनिया ठंडी और शीतल है, वहीं नागमती जल रही हैं। अनुप्रास अलंकार: “सखि झूमक गावैं अँग मोरी । हौं झुरावँ, बिछुरी मोरि जोरी ॥” यहाँ ‘झूमक’ और ‘झुरावँ’ का अनुप्रास प्रयोग हुआ है। उत्प्रेक्षा अलंकार: “सब कहँ चंद, खएउ मोहिं राहू” नागमती को विरह अवस्था के कारण ऐसा प्रतीत होता है जैसे राहु ने चंद्रमा को ग्रस लिया हो।
विशेषताएँ:
- विरह-वेदना का चरम चित्रण: नागमती का दुख केवल व्यक्तिगत नहीं है, बल्कि सामूहिक आनंद के बीच उनकी पीड़ा और गहरी हो रही है। दीपावली का उल्लास, चाँदनी की शीतलता और सखियों के गीत सब उनके लिए यातना बन गए हैं। विरोधाभास (Contrasts) का सुंदर प्रयोग: बाहर आनंद, भीतर पीड़ा, चंद्रमा सबके लिए प्रकाशमय है लेकिन नागमती के लिए अग्निदायी, सखियाँ गा रही हैं और नागमती रो रही हैं। शैली की सजीवता: इस पद में प्रकृति का मानवीकरण किया गया है (चंद्रमा, आकाश, अंधकार), नागमती की मनःस्थिति इतनी प्रभावशाली ढंग से चित्रित की गई है कि पाठक उनकी पीड़ा को अनुभव करता है।
“फागुन पवन झकोरा बहा । चौगुन सीउ जाइ नहिं सहा ॥
तन जस पियर पात भा मोरा । तेहि पर बिरह देइ झकझोरा ॥
तरिवर झरहि झरहिं बन ढाखा । भइ ओनंत फूलि फरि साखा ॥
करहिं बनसपति हिये हुलासू । मो कहँ भा जग दून उदासू ॥
फागु करहिं सब चाँचरि जोरी । मोहि तन लाइ दीन्ह जस होरी ॥
जौ पै पीउ जरत अस पावा । जरत-मरत मोहिं रोष न आवा ॥
राति-दिवस सब यह जिउ मोरे । लगौं निहोर कंत अब तोरे ॥
यह तन जारों छार कै, कहौं कि `पवन ! उडाव’ ।
मकु तेहि मारग उडि परै कंत धरै जहँ पाव ॥12॥”
संदर्भ:
प्रस्तुत पद मलूक मुहम्मद जायसी द्वारा रचित महाकाव्य ‘पद्मावत’ के Nagmati viyog khand vyakhya से लिया गया है। इस पद में रानी नागमती के विरह को और गहराई से चित्रित किया गया है। वह अपने अकेलेपन और अपनी भावनाओं को विभिन्न प्रकार से प्रकृति के साथ जोड़कर अनुभव कर रही हैं। इस अंश में फागुन के महीने में अपने तन और मन की स्थिति चित्रण कर रही हैं।
व्याख्या:
फागुन का मौसम है और ठंडी बयार बह रही है लेकिन नागमती की विरह की अग्नि इतनी तीव्र है कि उसे यह ठंडी हवा भी सहन नहीं हो रही। नागमती जो बाहर से शांत दिखती है लेकिन भीतर उसका मन और हृदय दुखों और वेदनाओं से भरे हुए हैं। उनके तन का रंग पीले पत्तों जैसा हो गया है, जैसे पेड़ पर पत्तियाँ सूखने लगती हैं। यहाँ पीले रंग का प्रयोग शारीरिक और मानसिक पीड़ा के प्रतीक के रूप में किया गया है। बिरह (विरह) की आग में नागमती हर पल झुलस रही हैं। वृक्षों पर जो सूखने और झरने वाली अवस्था है, उसे नागमती अपने जीवन के संकट से जोड़कर देखती हैं। उन्हें लगता है जैसे वह भी एक सूखा हुआ पेड़ है जो विरह के दुख में फूलने के बजाय मुरझा रहा है।
यहाँ पति के बिना जीवन की सज़ा और मानसिक स्थिरता का चित्रण है। भले ही उनके तन और मन में जलन हो लेकिन वह आग के ताप में अपने आप को शांत रख रही हैं और इस विरह की स्थिति में भी कोई आक्रोश नहीं है। उनके लिए रात और दिन एक जैसे हो गए हैं, अब जीवन में कोई भी उल्लास नहीं बचा है। यहाँ नागमती केवल अपने प्रिय के बिना खालीपन और अंधकार का अनुभव कर रही हैं।
नागमती कहती है कि “यदि यह शरीर जलकर राख हो जाए तो हवा उसे उड़ाकर प्रिय के पास भेज दे।” यह उनकी अंतिम इच्छा की तरह है, जहाँ वे शरीर के नष्ट होने के बाद भी अपने प्रिय के पास पहुंचने की इच्छा व्यक्त कर रही हैं।
अलंकार सौंदर्य:
- उपमा अलंकार: “तन जस पियर पात भा मोरा” नागमती का तन पीले पत्तों की तरह सूख गया है। रूपक अलंकार: “फागुन पवन झकोरा बहा” फागुन का पवन विरह की अग्नि से तुलना की गई है। विरोधाभास (विरोधालंकार): “तरिवर झरहि झरहिं बन ढाखा” जहाँ पेड़ झर रहे हैं, वहाँ नागमती के जीवन में कोई उत्साह नहीं है। अनुप्रास अलंकार: “करहिं बनसपति हिये हुलासू” यहाँ “हिये हुलासू” का अनुप्रास है। चित्रकाव्य अलंकार “यह तन जारों छार कै” शरीर को राख की तरह उड़ा देने का चित्रण।
विशेषताएँ:
- प्राकृतिक दृश्य और आंतरिक भावनाओं का मेल: यह पद प्राकृतिक दृश्यों को नागमती की मानसिक स्थिति के साथ जोड़कर उनके दुःख को और अधिक प्रभावशाली बनाता है। तन और मन की स्थिति का सूक्ष्म चित्रण: नागमती का तन और मन दोनों ही विरह की ज्वाला में जल रहे हैं और यह चित्रण इतनी गहराई से किया गया है कि पाठक उसकी पीड़ा को अनुभव कर सकता है। प्रकृति और विरह के बीच का अंतर: जहाँ प्रकृति खुशी और उत्साह का प्रतीक है वहीं नागमती के जीवन में केवल विरह और अकेलापन ही व्याप्त है।
“रोइ गँवाए बारह मासा । सहस सहस दुख एक एक साँसा ॥
तिल तिल बरख बरख परि जाई । पहर पहर जुग जुग न सेराई ॥
सो नहिं आवै रूप मुरारी । जासौं पाव सोहाग सुनारी ॥
साँझ भए झुरु झुरि पथ हेरा । कौनि सो घरी करै पिउ फेरा ?॥
दहि कोइला भइ कंत सनेहा । तोला माँसु रही नहिं देहा ॥
रकत न रहा, बिरह तन गरा । रती रती होइ नैनन्ह ढरा ॥
पाय लागि जोरै धनि हाथा । जारा नेह, जुडावहु, नाथा ॥
बरस दिवस धनि रोइ कै, हारि परी चित झंखि ।
मानुष घर घर बझि कै, बूझै निसरी पंखि ॥17॥”
संदर्भ:
प्रस्तुत पद जायसी द्वारा रचित पद्मावत के नागमती वियोग खंड Nagmati viyog khand vyakhya से लिया गया है। इसमें रानी नागमती की विरह-वेदना को और भी गहरे रूप में प्रस्तुत करता है। वह अपने पति रत्नसेन के बिना जीवन को घंटों, दिनों और महीनों के दुख में अनुभव कर रही है। उनके लिए अब समय की कोई विशेषता नहीं बची है बचा है मात्र दुख और एक लंबी अवधि का अनुभव ही रह गया है।
व्याख्या:
यह पद हमें यह बताता है कि नागमती ने बारह महीने अपने पति के बिना बिताती है और यह समय प्रति क्षण एक-एक सांस के दुःख का अनुभव बन गया है। यहाँ समय का उल्लेख नागमती के भावनात्मक रूप से टूटने और निरंतर दर्द को व्यक्त करने के लिए किया गया है। उनका हर पल, हर क्षण अत्यधिक कष्ट में बीत रहा है जैसे हर क्षण, हर पहर और हर वर्ष उनके लिए अंतहीन दुख का प्रतीक बन गया है।
नागमती कहती हैं कि उनके जीवन में अब वह रूप और सुंदरता नहीं आ सकती जो उनके प्रिय रत्नसेन के साथ थी। रात का समय है और वह सोच रही हैं कि उनका पति उन्हें क्यों नहीं मिलने आता है। नागमती के शरीर और मन की हालत बहुत ही दयनीय है। उन्हें लगता है कि जैसे कोयले के ताप में जलकर उनका तन भी नष्ट हो गया है और अब उसके शरीर में कोई भी ताकत या स्नेह नहीं बचा है। विरह के कारण उनका शरीर थक चुका है, रक्त की कमी और तन का सूखना जैसे प्रतीक हैं, जो उनके विरह के गहरे दुख को स्पष्ट रूप से दर्शाते हैं। उनका मन और शरीर हर दिन कमजोर हो रहा है और आँखों से निरंतर आंसू बरस रहे हैं। नागमती अब अपने प्रिय के पास जाने के लिए प्रार्थना करती हैं और उसे कहती हैं कि अब उसे अपने प्रेमी ही जीवन की संजीवनी दे सकता है। नागमती के दुःख के गहरे प्रभाव है में कहती हैं कि सारे दिन और रात केवल उनके आंसुओं में डूबे हुए हैं। फिर भी मानव समाज उनके दुःख को नहीं समझ रहा है। जैसे एक चिड़ीया अपनी सूखी पंखों को देखे और न जाने कहाँ उड़ जाए। यहाँ सामाजिक उदासीनता और मानवीय संवेदनहीनता की ओर संकेत किया गया है।
अलंकार सौंदर्य:
उपमा अलंकार: “रोइ गँवाए बारह मासा” बारह महीने के समय को एक निरंतर रोने की प्रक्रिया के रूप में व्यक्त किया गया है। रूपक अलंकार: “दहि कोइला भइ कंत सनेहा” शरीर को कोयले के समान जलता हुआ दिखाया गया है। विरोधाभास (विरोधालंकार): “बरस दिवस धनि रोइ कै, हारि परी चित झंखि” निरंतर रोने के बावजूद, समाज या अन्य लोग इसे नहीं समझते। अनुप्रास अलंकार: “मानुष घर घर बझि कै, बूझै निसरी पंखि” यहाँ ‘बूझै’ और ‘बझि’ का अनुप्रास है। चित्रकाव्य अलंकार: “रक्त न रहा, बिरह तन गरा” शारीरिक और मानसिक क्षति को दिखाने के लिए रक्त और तन की गिरावट का चित्रण।
विशेषताएँ:
समय और पीड़ा का प्रतीकात्मक चित्रण: “तिल तिल बरख बरख परि जाई” का चित्रण समय के साथ बढ़ते दर्द और पीड़ा को समय के साथ बढ़ने वाला दर्द बताता है। शारीरिक और मानसिक विकृति: नागमती का तन और मन दोनों ही विकृत हो गए हैं और यह उनके आंतरिक शोक को बहुत प्रभावशाली तरीके से दर्शाता है। प्राकृतिक और सामाजिक असंवेदनशीलता: उनके दुख के बीच प्रकृति की चुप्पी और सामाजिक अनुपस्थिति की सूक्ष्म अभिव्यक्ति भी इस पद की गहराई को बढ़ाती है।
“नागमती चितउर पंथ हेरा। पिउ जो गए फिरि कीन्ह न फेरा॥
नागरि नारि काहूँ बस परा। तेइँ बिमोहि मोसौं चितु हरा॥
सुवा काल होइ लै गा पीऊ। पिउ नहिं लेत लेत बरु जीऊ॥
भएउ नरायन बावन करा। राज करत बलि राजा छरा॥
करन बान लीन्हेउ कै छंदू। भारथ भएउ झिलमिल आनंदू॥
मानत भोग गोपीचँद भोगी। लै उपसवा जलंधर जोगी॥
लै कान्हहि भा अकरुर अलोपी। कठिन बिछोउ जिऐ किमि गोपी॥
सारस जोरी किमि हरी मारि गएउ किन खग्गि।
झुरि झुरि पाँजरि धनि भई बिरह कै लागी अग्गि॥364।।”
संदर्भ:
यह पद नागमती वियोग खंड Nagmati viyog khand vyakhya का एक और अत्यंत मार्मिक और गहन भावनाओं से भरा हुआ अंश है। इसमें नागमती अपने पति रतनसेन के चित्तौड़ जाने के बाद उनकी प्रतीक्षा में दुखी होकर अपनी वेदना व्यक्त कर रही हैं। उनके मन में इस बात का संशय उत्पन्न हो गया है कि उनके पति किसी अन्य स्त्री के मोह में पड़ गए होंगे और इसलिए लौटकर नहीं आ रहे हैं।
व्याख्या:
नागमती चित्तौड़ के रास्ते को टकटकी लगाकर देखती रहती हैं लेकिन उनके पति रतनसेन एक बार जो गए फिर लौटकर नहीं आए। यह आशा और निराशा का टकराव दर्शाता है। जहाँ एक ओर वे उनके लौटने की उम्मीद रखती हैं, वहीं दूसरी ओर उन्हें यह अनुभव भी हो रहा है कि वे अब शायद लौटेंगे नहीं। नागमती को यह शंका होती है कि कहीं उनके पति किसी नगरवधू (अन्य स्त्री) के वश में तो नहीं आ गए? उन्हें लगता है कि रतनसेन का मन अब उनसे हट गया है और किसी और स्त्री की ओर आकर्षित हो गया है। यह प्रेम में व्याप्त असुरक्षा और स्त्री के भीतर उठने वाले स्वाभाविक संशय को प्रकट करता है।
नागमती को लगता है कि जैसे ’सुआ’ काल बनकर उनके प्रिय को ले गया है। उनके लिए यह विश्वास करना कठिन हो गया है कि यदि वे जीवित होते, तो क्या उन्हें लेने नहीं आते? इस पंक्ति में जीवन और मृत्यु के बीच का गहरा संघर्ष व्यक्त किया गया है। यहाँ भगवान विष्णु के वामन अवतार का संदर्भ दिया गया है, जिन्होंने राजा बलि से तीन पग भूमि मांगी और पूरे लोकों को नाप लिया। इस प्रकार भगवान द्वारा राजा बलि छला गया था। उसी प्रकार इंद्र द्वारा कर्ण से बाण भिक्षा में मंगाकर उसे छला गया था। गोपीचंद राजा को जालंधर ने छला था। उसी प्रकार बालक कृष्ण को अक्रूर मथुरा ले गए थे और गोपियों को अनाथ बना दिया था। नागमती अनुभव करती है कि वह भी सुआ के द्वारा छली गई है।
यहाँ गोपीचंद और जलंधर नाथ जैसे प्रसिद्ध योगियों का उल्लेख है, जिन्होंने राजसी वैभव छोड़कर सन्यास अपना लिया था। इस संदर्भ से नागमती यह कहना चाहती हैं कि अगर उनके पति ने भी किसी और कारण से उन्हें छोड़ दिया, तो क्या वे भी किसी योगी की तरह सन्यास ले चुके हैं? यहाँ सारस पक्षी के जोड़े का उदाहरण दिया गया है। प्राचीन मान्यता के अनुसार, यदि सारस का एक साथी मर जाए तो दूसरा जीवन भर उसका शोक मनाता है। नागमती अपने दुख की तुलना सारस जोड़े के बिछोह से कर रही हैं और कह रही हैं कि वह भी अपने प्रिय के बिना जल रही हैं, जैसे किसी ने उनके प्रेम को तलवार से काट दिया हो।
अलंकार सौंदर्य:
उपमा अलंकार: “झुरि झुरि पाँजरि धनि भई बिरह कै लागी अग्गि” नागमती के शरीर को बिरह की आग में जलते हुए दिखाया गया है। रूपक अलंकार: “सुवा काल होइ लै गा पीऊ” प्रिय को मृत्यु का ग्रास बताकर काल का रूपक बनाया गया है। अनुप्रास अलंकार: “झुरि झुरि पाँजरि धनि भई” “झुरि” शब्द की पुनरावृत्ति अनुप्रास अलंकार को दर्शाती है। संकेत अलंकार: “लै कान्हहि भा अकरुर अलोपी” श्रीकृष्ण और अक्रूर की कथा का संकेत।
विशेषताएँ:
प्रेम और संदेह का अद्भुत मिश्रण: नागमती अपने प्रिय की प्रतीक्षा कर रही हैं, लेकिन उनके मन में संदेह और दुख दोनों हैं। ऐतिहासिक और पौराणिक संदर्भों का प्रयोग: भगवान विष्णु, महाभारत, गोपीचंद, जलंधर योगी, कृष्ण-अक्रूर कथा, सारस पक्षी आदि का उल्लेख विरह को अधिक व्यापक और गंभीर बनाता है। नारी के भावनात्मक संघर्ष का सजीव चित्रण: नागमती की स्थिति केवल एक स्त्री का विरह नहीं, बल्कि प्रेम में उपजी असहायता को दिखाती है।
“पिउ वियोग अस बाउर जीऊ। पपिहा तस बोलै पिउ पीऊ।
अधिक काम दगधै सो रामा। हरि जिउ लै सो गएउ पिय नामा।
बिरह बान तस लाग न डोली। रकत पसीज भीजि तन चोली।
सखि हिय हेरी हार मैंन मारी। हहरि परान तजै अब नारी।
खिन एक आव पेट महँ स्वाँसा। खिनहि जाइ सब होइ निरासा।
पौनु डोलावहिं सीचाहिं चोला। पहरक समुझि नारि मुख बोला।
प्रान पयान होत केइँ राखा। को मिलाव चात्रिक कै भाखा।
आह जो मारी बिरह की आगि उठी तेहि हाँक।
हंस जो रहा सरीर महँ पाँख जरे तन थाक।।365।।”
संदर्भ:
यह पद नागमती वियोग खंड Nagmati viyog khand vyakhya का एक और अत्यंत मार्मिक और भावनात्मक अंश है। इसमें नागमती अपने पति रतनसेन के वियोग में अत्यंत व्याकुल होकर अपने दुख की पराकाष्ठा व्यक्त कर रही हैं। वह इस विरह को असहनीय मानते हुए स्वयं को समाप्तप्राय अनुभव कर रही हैं।
व्याख्या:
नागमती कहती हैं कि पति के वियोग में उनका जीवन पागल सा हो गया है। ठीक उसी प्रकार जैसे पपीहा (चातक पक्षी) वर्षा की प्रतीक्षा में “पीउ-पीउ” पुकारता है, वैसे ही वह अपने प्रिय को पुकार रही हैं। नागमती कहती हैं कि वह विरह की आग में इस प्रकार जल रही हैं जैसे कामदेव की अग्नि किसी को जला देती है। उनके लिए प्रभु हरि (विष्णु) भी उनके प्रिय को उनसे छीन ले गए। विरह उनके शरीर को इस प्रकार भेद रहा है मानो कोई तीखा बाण लगा हो। इतना अधिक कष्ट हो रहा है कि उनका रक्त पसीजकर चोली (कपड़े) को भिगो रहा है।
नागमती अपनी सखी से कहती हैं कि अब उन्होंने हार मान ली है। उनका मन अब इस कष्ट को और सहने में सक्षम नहीं है। वे अब अपने प्राण छोड़ने की स्थिति में आ चुकी हैं। वह कहती हैं कि कभी-कभी सांसें आती हैं और कभी-कभी ऐसा लगता है कि सब समाप्त हो गया। यह उनके जीवन-मृत्यु के बीच झूलने का सूचक है। नागमती की सखियाँ अब उनके प्राणों बचाने हेतु हवा दे रही हैं, उनके शरीर को ठंडा करने के लिए पानी का छिड़काव कर रही हैं। जब किसी के प्राण निकल रहे हों, तो उन्हें कौन रोक सकता है? जिस प्रकार चातक पक्षी वर्षा की एक बूंद के लिए तरसता है, वैसे ही नागमती अपने प्रिय की एक झलक के लिए तरस रही हैं। नागमती की आह से विरह की अग्नि उठ रही है। यदि शरीर में कोई हंस रूपी आत्मा रह भी गई है, तो उसके पंख भी जल रहे हैं।
अलंकार सौंदर्य:
उपमा अलंकार: “पपिहा तस बोलै पिउ पीऊ” नागमती की विरह-वेदना को पपीहे की तड़प से जोड़ा गया है। रूपक अलंकार: “बिरह बान तस लाग न डोली” विरह को तीर के समान तीव्र दर्द के रूप में प्रस्तुत किया गया है। अनुप्रास अलंकार: “पिउ वियोग अस बाउर जीऊ” ‘प’ और ‘ब’ ध्वनियों की पुनरावृत्ति से अनुप्रास का प्रयोग। चित्रात्मकता: “रकत पसीज भीजि तन चोली” इस वाक्य में अत्यंत गहरा चित्रण है जो विरह की भौतिक पीड़ा को स्पष्ट करता है।
विशेषताएँ:
प्रेम और विरह का अत्यधिक मार्मिक चित्रण: नागमती की पीड़ा केवल मानसिक नहीं, बल्कि शारीरिक रूप से भी झलक रही है। प्रतीकों का सजीव उपयोग: पपीहा, चातक, हंस, विरह-बाण, अग्नि इन प्रतीकों का कला और भावनात्मक प्रभाव के लिए उपयोग किया गया है। जीवन और मृत्यु के बीच संघर्ष: नागमती वास्तव में मृत्यु के करीब महसूस कर रही हैं, यह विरह की चरम स्थिति को दर्शाता है।
“चढ़ा असाढ़ गँगन घन गाजा। साजा बिरह दुन्द दल बाजा।
धूम स्याम धौरे घन धाए। सेत धुजा बगु पाँति देखाए।
खरग बीज चमकै चहुँ ओरा। बुँद बान बरिसै घन घोरा।
अद्रा लाग बीज भुइँ लेई। मोहि पिय बिनु को आदर देई।
ओनै घटा आई चहुँ फेरी। कन्त उबारु मदन हौं घेरी।
दादुर मोर कोकिला पीऊ। करहिं बेझ घट रहै न जीऊ।
पुख नक्षत्र सिर ऊपर आवा। हौं बिनु नाँह मन्दिर को छावा।
जिन्ह घर कन्ता ते सुखी तिन्ह गारौ तिन्ह गर्ब।
कुन्त पियारा बाहिरे हम सुख भूला सर्ब।।367।।”
संदर्भ:
यह पद पद्मावत के नागमती-वियोग खंड Nagmati viyog khand vyakhya से लिया गया है, जिसमें नागमती अपने पति रत्नसेन के वियोग में दुखी होकर वर्षा ऋतु के आगमन पर अपनी विरह वेदना व्यक्त कर रही हैं। अषाढ़ का महीना और घनघोर घटाएं, प्रेम में विरहिनी स्त्री के लिए और भी दुखदायी हो जाती हैं। यहाँ वर्षा के प्राकृतिक चित्रण के माध्यम से विरह की पीड़ा को गहराई से उकेरा गया है।
व्याख्या:
नागमती कहती हैं कि आषाढ़ का महीना आ गया है और आकाश में बादल गरजने लगे हैं। बिरह भी अपना दल लेकर सज गया है और उनके विरह की पीड़ा को और बढ़ा रहा है। धूम्रवर्ण (काले) बादल उमड़-घुमड़कर आकाश में दौड़ रहे हैं। सफेद बगुले मानो सफेद ध्वजा (झंडा) की तरह दिख रहे हैं जैसे किसी युद्ध में सेनाओं के झंडे लहराते हैं। बिजली की चमक को खड्ग (तलवार) की चमक से तुलना की गई है। बूंदों की बरसात को बाणों की वर्षा के रूप में चित्रित किया गया है।
अद्रा नक्षत्र के लगने पर वर्षा शुरू होती है, जिससे बीज भूमि में गिरने लगते हैं। नागमती कहती हैं, जिस प्रकार बीज को भूमि ही अपनाती है, वैसे ही उन्हें अपने प्रिय के बिना कोई अपनाने वाला नहीं है। चारों ओर से घनघोर बादल छा गए हैं, जैसे विरह रूपी दुख ने चारों ओर से घेर लिया हो। नागमती अपने प्रिय को पुकारती हैं कि हे प्रिय! मुझे बचाइए क्योंकि मैं प्रेम (कामदेव) की पीड़ा से घिरी हुई हूँ।
दादुर (मेंढक), मोर और कोयल तीनों वर्षा के स्वागत में अपनी ध्वनि निकाल रहे हैं। ये सभी “पीऊ-पीऊ” पुकारते हैं लेकिन नागमती को यह ध्वनि दुखदायी प्रतीत होती है क्योंकि यह उनके प्रिय की अनुपस्थिति का स्मरण कराती है। पुख नक्षत्र (पूर्वाषाढ़) आकाश में चमक रहा है, जो वर्षा ऋतु का सूचक है। लेकिन पति के बिना घर रूपी मंदिर सूना लगता है, जहाँ कोई छाया नहीं होती। जिनके पति घर में हैं, वे स्त्रियाँ सुखी हैं। लेकिन मैं, जिसका प्रिय घर से बाहर है, सारा सुख भूल चुकी हूँ।
अलंकार सौंदर्य:
रूपक अलंकार: “साजा बिरह दुन्द दल बाजा” वर्षा को युद्ध के रूप में प्रस्तुत किया गया है। उपमा अलंकार: “खरग बीज चमकै चहुँ ओरा” बिजली की चमक को तलवार की चमक से तुलना की गई है। अनुप्रास अलंकार: “दादुर मोर कोकिला पीऊ” ‘क’ और ‘प’ ध्वनि की पुनरावृत्ति। चित्रात्मकता: पूरे पद में वर्षा ऋतु के सजीव और प्रभावशाली चित्रण के माध्यम से नागमती की भावनाओं को उकेरा गया है।
विशेषताएँ:
वर्षा और विरह का सजीव चित्रण: वर्षा, जो सामान्यतः हर्ष का प्रतीक होती है, यहाँ विरह के कारण दुःखदायी बन गई है। प्राकृतिक प्रतीकों का गहन प्रयोग: मेंढक, मोर, कोयल, बादल, बिजली, वर्षा की बूंदें, इन सभी के माध्यम से नागमती की विरह-वेदना को संवेदनशील तरीके से प्रस्तुत किया गया है। स्त्री मनोविज्ञान का सूक्ष्म चित्रण: जिन स्त्रियों के पति उनके पास हैं, वे सुखी हैं, और जिनका पति दूर है, वे सब कुछ भूलकर केवल अपने प्रिय की प्रतीक्षा में दुखी हैं। विरह की वेदना का चरम उत्कर्ष: प्रेम में पति का साथ ही स्त्री के लिए संपूर्ण सुख का कारक है और उसकी अनुपस्थिति में समस्त संसार उसे दुखदायी प्रतीत होता है।
“सावन बरिस मेह अति पानी। भरनि भरइ हौं बिरह झुरानी।
लागु पुनर्बसु पिउ न देखा। भै बाउरि कहँ कन्त सरेखा।
रकत क आँसु परे भुइँ टूटी। रेंगि चली जनु बीर बहूटी।
सखिन्ह रचा पिउ संग हिंडोला। हरियर भुइँ कुसुंभि तन चोला।
हिय हिंडोल जस डोलै मोरा। बिरह झुलावै देइ झंकोरा।
बाट असूझ अथाह गम्भीरा। जिउ बाउर भा भावै भंभीरा।
जग जल बूड़ि जहाँ लगि ताकी। मोर नाव खेवक बिनु थाकी।
परबत समुँद्र अगम बिच बन बेहड़ गहन ढंख।
किमि करि भेटौं कंत तोहि ना मोहि पाँव न पंख।।368।।”
संदर्भ:
यह पद मलिक मुहम्मद जायसी कृत “पद्मावत” के नागमती-वियोग खंड Nagmati viyog khand vyakhya से लिया गया है। इस पद में नागमती सावन की मूसलधार बारिश के बीच अपने प्रिय रत्नसेन के वियोग में गहन विरह-वेदना प्रकट कर रही हैं। सावन जहाँ प्रेमियों के लिए उल्लास लाता है, वहीं नागमती के लिए यह अतिशय दुख का कारण बन गया है। उनका मन अपने प्रिय के बिना एकाकी और असहाय महसूस कर रहा है।
व्याख्या:
सावन के महीने में मूसलधार बारिश हो रही है। वे कहती हैं कि मेरा मन भी आँसुओं से भर गया है, जैसे धरती पानी से भर रही है। पुनर्वसु नक्षत्र लग गया है, जो शुभ माना जाता है लेकिन नागमती के लिए यह व्यर्थ है क्योंकि उनका प्रिय लौटकर नहीं आया। वे व्याकुल होकर कहती हैं कि मैं पागल हो गई हूँ, मुझे अपना प्रिय कहीं भी नहीं दिखता। नागमती के आँसू अब खून में बदल चुके हैं, जो धरती पर गिरकर टूट जाते हैं। उनका रक्त-मिश्रित दुख बीर बहूटी (लाल रंग का कीड़ा) के समान रेंगता हुआ प्रतीत होता है।
सावन के आगमन पर सखियाँ अपने प्रियतमों के साथ झूला झूल रही हैं। हरे-भरे वन में प्रेम का उल्लास है लेकिन नागमती के लिए यह वातावरण दुःखदायी बन गया है। उनका तन कुसुंभ (गहरा लाल) रंग की चोली जैसा हो गया है अर्थात उनकी पीड़ा उनकी देह पर भी दिखने लगी है। झूले में झूलने का आनंद तब आता है जब प्रिय पास हो लेकिन नागमती के लिए उनका हृदय ही हिंडोला बन गया है, जिसे विरह झुला रहा है। यहाँ “हिय हिंडोल” (हृदय हिंडोला बन गया) एक सुंदर रूपक है, जो नायिका के आंतरिक संघर्ष को अत्यंत मार्मिक तरीके से प्रस्तुत करता है।
नागमती को अपना जीवन अब एक अथाह गहरा और अंधकारमय मार्ग जैसा प्रतीत हो रहा है। वे कहती हैं कि उनका मन बावला हो गया है और यह भंभीरी (भँवर) की तरह चक्कर काट रहा है। नागमती को लगता है कि संपूर्ण संसार ही जल में डूब गया है। उनका जीवन एक नाव की तरह हो गया है, जो बिना खेवइया (नाविक) के बीच जलधारा में ठहरी हुई है। नागमती कहती हैं कि उनके और उनके प्रिय के बीच पर्वत, समुद्र और घने जंगल हैं। न तो उनके पास पैर हैं कि वे चलकर जा सकें और न पंख कि वे उड़कर पहुँच सकें।
अलंकार सौंदर्य:
रूपक अलंकार: “हिय हिंडोल जस डोलै मोरा” (हृदय को हिंडोला कहा गया है) , “मोर नाव खेवक बिनु थाकी” (जीवन को नाव और प्रिय को नाविक कहा गया है) उपमा अलंकार: “रकत क आँसु परे भुइँ टूटी। रेंगि चली जनु बीर बहूटी॥” (आँसुओं की तुलना बीर बहूटी से की गई है) अनुप्रास अलंकार: “परबत समुँद्र अगम बिच बन बेहड़ गहन ढंख” (प ध्वनि की आवृत्ति) विरोधाभास अलंकार: “सावन बरिस मेह अति पानी। भरनि भरइ हौं बिरह झुरानी॥” (सावन की वर्षा से धरती प्रसन्न, लेकिन नायिका दुखी)
विशेषताएँ:
वर्षा ऋतु का विरोधाभासपूर्ण चित्रण: वर्षा का सौंदर्य, जो प्रेम के लिए अनुकूल होता है, विरहिणी नायिका के लिए कष्टकारी बन जाता है। प्राकृतिक प्रतीकों का गहन प्रयोग: बारिश, आँधी, हिंडोला, नाव, भंवर, बीर बहूटी आदि प्रतीकों के माध्यम से विरह की गहराई को दर्शाया गया है। स्त्री मनोविज्ञान का सूक्ष्म चित्रण: प्रियतम की अनुपस्थिति में नायिका स्वयं को असहाय, दिशाहीन और टूट चुकी महसूस करती है। भावना की चरम गहराई: विरह में नायिका का शरीर रक्तहीन, अशक्त और विवश हो चुका है।
“भा भादौं दूभर अति भारी। कैसे, भरौं रैनि अँधियारी॥
मँदिल सून पिय अनतै बसा। सेज नाग भै धै धै डसा॥
रहौं अकेलि गहें एक पाटी। नैन पसारि मरौं हिय फाटी॥
चमकि बीज घन गरजि तरासा। बिरह काल होइ जीउ गरासा॥
बरिसै मघा झँकोरि झँकोरी। मोर दुइ नैन चुवहिं जसि ओरी॥
पुरबा लाग पुहुमि जल पूरी। आक जवास भई हौं झूरी॥
धनि सूखी भर भादौं माहाँ। अबहूँ आइ न सींचति नाहाँ॥
जल थल भरे अपूरि सब आँगन धरति मिलि एक।
धनि जोबन औगाह महँ दे बूड़त पिय टेक॥369।।”
संदर्भ:
यह पद मलिक मुहम्मद जायसी कृत “पद्मावत” के नागमती-वियोग खंड Nagmati viyog khand vyakhya से लिया गया है। इस पद में नागमती भादों के महीने की वर्षा और अंधेरी रात के बीच अपने प्रिय रत्नसेन के वियोग में घोर दुःख व्यक्त कर रही हैं। उनका एकाकी जीवन अत्यंत कठिन हो गया है और प्रिय के बिना उनकी विरह-वेदना असहनीय हो गई है।
व्याख्या:
भादों का महीना अत्यंत कठिन और पीड़ादायक हो गया है। रात अंधकारमय और असहनीय है, जिसे नागमती अकेले कैसे बिताएँगी? राजमहल सुना और वीरान पड़ा है क्योंकि रत्नसेन वहाँ नहीं हैं। जिस शय्या पर पहले प्रेम था, अब वह साँप के समान डस रही है। नागमती अकेली हैं और एक पाटी पकड़कर बैठी हैं। उनका हृदय इतना दुखी है कि वे आँखें खोलकर ही मर जाना चाहती हैं। यह विरह में आत्मदाह की भावना को दर्शाता है। बिजली चमक रही है और बादल गरज रहे हैं, जिससे भय का वातावरण बन रहा है। नागमती को ऐसा लग रहा है जैसे यह विरह ही उनकी मृत्यु का कारण बन जाएगा।
मघा नक्षत्र के कारण तेज बारिश हो रही है, जिससे झंकोरे उठ रहे हैं। नागमती की आँखों से भी उसी प्रकार आँसू बह रहे हैं, जैसे वर्षा की बूँदें गिर रही हों। पूर्वी हवा चलने से सारी पृथ्वी जल से भर गई है लेकिन नागमती की दशा विपरीत है। वे सूखी आक और जवास की तरह मुरझा गई हैं। भादों के महीने में जल हर जगह भर गया है, लेकिन नागमती अभी भी सूखी पड़ी हैं क्योंकि उनका प्रिय वापस नहीं आया। उन्हें लगता है कि अगर उनका प्रिय आ जाता, तो उनका हृदय भी पुनः प्रेमरस से भर जाता। धरती पूरी तरह जल से भर चुकी है, चारों ओर पानी ही पानी है। लेकिन नागमती का सौंदर्य (यौवन) बिना प्रिय के डूबता जा रहा है। वे कहती हैं कि अगर प्रिय साथ होते, तो उनका यौवन भी सुरक्षित रहता।
अलंकार सौंदर्य:
रूपक अलंकार: “सेज नाग भै धै धै डसा” (शय्या को नाग की उपमा दी गई है) “मोर दुइ नैन चुवहिं जसि ओरी” (आँसू को वर्षा की बूंदों की तरह बताया गया है) उपमा अलंकार: “आक जवास भई हौं झूरी” (नायिका को आक और जवास के पौधे की तरह मुरझाया हुआ बताया गया है) अनुप्रास अलंकार: “बरिसै मघा झँकोरि झँकोरी” (झ ध्वनि की आवृत्ति) विरोधाभास अलंकार: “पुरबा लाग पुहुमि जल पूरी, आक जवास भई हौं झूरी” (दुनिया में जल है, लेकिन नायिका सूख गई है)
विशेषताएँ:
ऋतु वर्णन और विरह का अद्भुत सामंजस्य: भादों के महीने में चारों ओर जल ही जल है लेकिन नायिका का हृदय सूखा पड़ा है। यह विरह-वेदना की विपरीत परिस्थितियों के माध्यम से गहरी अभिव्यक्ति है। नायिका का करुण विलाप और मानसिक संघर्ष: नागमती की स्थिति ऐसी हो गई है कि वह स्वयं को अकाल मृत्यु के लिए तैयार मानने लगी हैं। प्राकृतिक प्रतीकों का गहन प्रयोग: बिजली की चमक, बारिश, पूर्वी हवा, जल से भरी धरती आदि के माध्यम से नायिका के आंतरिक संघर्ष को उजागर किया गया है। विरह की पराकाष्ठा और प्रेम में पूर्ण समर्पण: नागमती के लिए अब जीवन का कोई अर्थ नहीं रह गया है।