कबीर: भक्ति, विद्रोह और समाज सुधारक संत

भक्तिकाल के भक्त और संत कवि कबीर का व्यक्तित्व बहुआयामी है। कुछ समीक्षक उन्हें मूलभाव से संत और स्वभाव से उपदेशक मानते हैं और कहते हैं कि ठोक पीट कर कवि हो गए हैं। जब हम कबीर के दोहे का अध्ययन करते हैं, तब वे हमें समाज सुधारक के रूप में बुद्ध, गांधी और अंबेडकर आदि क्रांतिकारी समाज सुधारकों की परंपरा में दिखाई पड़ते हैं। एक महान समाज सुधारक की मूल विशेषता यह होती है कि वह अपने युग की विसंगतियों की पहचान करें। एक मौलिक व समय अनुकूल जीवन दृष्टि स्थापित करें और इस जीवन दृष्टि को स्थापित करने के लिए हर संभव भय और लालच से मुक्त होकर दृढ़तापूर्वक संघर्ष करें। कबीर के व्यक्तित्व में हमें यह तीनों गुण दृष्टिगोचर होते हैं।

कबीर के दोहे और समाज सुधार:

कबीर अपने दोहे के माध्यम से धर्म के आडंबरकारी रूप का विरोध करते हुए मानव मात्र की एकता का समर्थन किया है। वे आदर्श समाज की स्थापना करने हेतु अपना सर्वस्व त्यागने के लिए तत्पर हैं। ‘हम घर जारा आपना, लिया मुराडा हाथ। अब घर जारौ तासु का, जो चलै हमारे साथ।।’ कबीर के इसी दृष्टिकोण पर विचार करते हुए डॉ. रामविलास शर्मा अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘निराला की साहित्य साधना’ (भाग-1) के कबीर उर उनका युग अध्याय में कबीर को सामाजिक यथार्थवादी कवि मानते हैं और लिखते हैं कि “वे शोषण के खिलाफ आवाज उठाने वाले लोकनायक थे। कबीर का संतत्व केवल आध्यात्मिक नहीं था बल्कि सामाजिक बदलाव की प्रेरणा भी देता था।” कबीर की साखियाँ समाज की यथार्थ स्थिति को हमारे समक्ष रखती है। कबीर केवल सामज की वास्तविकता पर केवल चोट नहीं करते बल्कि उनके पास हर समस्या और चुनौतियों जा समाधान भी है। उनकी साखियों में समाज की समस्याओं के साथ-साथ समाधान भी विद्यमान है। कबीर अपने समय के शोषित और सीमांत समुदायों के प्रतिनिधित्व कर रहे थे और उनका पक्ष एक कई उदाहरणों और तथ्यों के साथ वैज्ञानिक रूप से रख रहे थे। वे वास्तव में गरीब और शोषित वर्ग के नायक थे। इस संदर्भ में राहुल सांकृत्यायन अपनी पुस्तक ‘कबीर’ में लिखते हैं कि “कबीर समाजवादी विचारों से प्रभावित कवि थे और उनकी कविता शोषित वर्ग के लिए आशा की किरण थी।” कबीर न केवल सामाजिक विसंगतियों को पर प्रहार कर रहे थे बल्कि तत्कालीन धार्मिक कठोरता का भी विरोध कर रहे थे। उस समय धार्मिक कठोरता पर आवाज़ उठान एक साहसी और क्रांतिकारी कार्य था। इस संदर्भ में डॉ. नामवर सिंह अपनी पुस्तक ‘दूसरी परम्परा की खोज’ में लिखते हैं कि “कबीर भारतीय भक्ति आंदोलन का सबसे साहसी और जनवादी कवि थे, जिन्होंने सामाजिक अन्याय और धार्मिक कट्टरता का खुलकर विरोध किया।” अत: कहने की आवश्यकता नहीं है कि कबीर की कविता में मध्यकालीन समाज में व्याप्त वर्ण व्यवस्था, सांप्रदायिकता, कर्मकाण्ड, अभिजात्यता और धार्मिक आडंबरों का चित्रण के साथ-साथ कठोर आलोचना भी दृष्टिगोचर होती है।

कबीर की काव्य रचनाएँ:

महान संत कबीर समाज सुधारक के साथ-साथ महान कवि भी थे। यदि हम कविता को किसी प्रतिमान की कसौटी पर कसते हैं, तब कबीर की कविता में वे लक्षण नहीं दिखाई देते हैं किंतु जब हम कविता के अनुरूप प्रतिमानों का विश्लेषण करते हैं, तब कबीर की कविता में एक महान कविता दिखाई देता है। उनकी कविताओं में दर्शन से संबंधित कविताओं को नजरअंदाज करके समाज संबंधी कविताओं और ईश्वर मिलन संबंधी कविताओं में एक महान कवि चेतना के दर्शन होते हैं। उनकी समाज पर लिखी गई कविताओं में व्यंग क्षमता का जो स्तर दिखाई देता है, वह कबीर को सर्वोच्च स्थान पर खड़ा कर देता है। वहीं दूसरी ओर ईश्वर से मिलान संबंधी कविता पर जब हम विचार करते हैं, तो उनकी कविताओं में मधुरता और भावुकता की प्रधानता दिखाई देती है।

कबीर का भक्ति दृष्टिकोण:

कबीर एक महान संत भी थे। महान संत के प्रमुख चार गुण होते हैं: आध्यात्मिक मनोवृति, सांसारिक सुखों के प्रति विरक्ति का भाव, निस्वार्थ भावना और निर्भयता। कबीर के व्यक्तित्व और कृतित्व में इन चारों गुणों को हम स्पष्ट रूप से पहचान सकते हैं। हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसे समीक्षकों का कहना है कि कबीर महान समाज सुधारक भी हैं, महान संत और महान कवि भी हैं किंतु उनका भक्त रूप केंद्रीय व्यक्तित्व है, जो अन्य सभी व्यक्तित्व का मूल आधार है। इसीलिए कबीर की विभिन्न कविताओं में भक्ति संबंधी कविताएं और ईश्वर मिलन संबंधी प्रसंगों की अभिव्यक्ति उन्हें महान भक्त और कवि सिद्ध करती है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी कबीर के भक्त व्यक्तित्व पर विचार करते हुए अपनी ‘कबीर’ नामक पुस्तक में लिखते हैं कि “भक्ति तत्व की व्याख्या करते हुए उन्हें उन बाह्याचारों के जंजालों को साफ करने की जरूरत महसूस हुई है, जो अपनी जड़ प्रकृति के कारण विशुद्ध चेतन तत्व की उपलब्धि में बाधक हैं। यह बात ही समाज सुधार और सांप्रदायिक ऐक्य की विधात्री बन गई है। पर यहां यह भी कह रखना ठीक है कि वह भी ‘फोकट का माल’ या ‘बाई प्रोडक्ट’ ही है।” इस प्रकार द्विवेदी कबीर का विश्लेषण भक्ति तत्व के आधार पर ही करते हैं।

कबीर का दर्शन:

कहना न होगा कि कबीर का व्यक्तित्व बहुआयामी है और उनके व्यक्तित्व के संत, दार्शनिक, कवि आदि आयाम पूर्णता को छूते हैं फिर भी हमें यह स्वीकार करना होगा कि कबीर के ये सारे आयामों की मूल पृष्ठभूमि भक्ति तत्व ही है। कबीर के भक्ति तत्त्व और उनके रहस्यवाद के संदर्भ में रवींद्रनाथ टैगोर अपनी पुस्तक ‘Songs of Kabir’ में लिखते हैं कि “उनकी कविता ‘ज्ञान और प्रेम का अद्वितीय संगम’ है। कबीर का रहस्यवाद आत्मा और ब्रह्म की एकता को दर्शाता है।”

कबीर दर्शन के पाँच तत्व:

कबीर के दर्शन को हम ब्रह्म, आत्मा, शरीर, जगत और माया इन पांच मूल तत्वों के आधार पर समझ सकते हैं। कबीर के दार्शनिक आधार के संदर्भ में विश्वनाथ त्रिपाठी ने कबीर को भारतीय भक्ति परंपरा का प्रमुख स्तंभ बताया और कहा कि “उनकी वाणी में अद्वैत वेदांत, सूफी विचारधारा और निर्गुण भक्ति का अद्भुत समन्वय है।” कहना न होगा कि कबीर के दर्शन पर उपनिषद के विचार, शंकराचार्य के अद्वैतवाद, नाथ पंक्तियों की योग साधना, सूफियों की भावनात्मक राष्ट्रवाद और वैष्णवों की जीवन दृष्टि का प्रभाव दिखाई देता है।

  • ब्रह्म: कबीर का दृष्टिकोण अद्वैतवादी है, अर्थात ब्रह्म एक है और वही सत्य है।
  • आत्मा: कबीर कहते हैं कि ब्रह्म और आत्मा एक हैं। आत्मा नित्य और परमार्थिक सत्ता है।
  • शरीर: कबीर के दृष्टिकोण पर गीता का प्रभाव दिखाई देता है।
  • जगत: कबीर अद्वैत वेदांत के निकट है क्योंकि उन्होंने बार-बार जगत की निस्सारता पर बोलते हैं।
  • माया: कबीर अद्वैतवादी दृष्टिकोण अपनाते हुए कहते हैं कि माया एक दुष्ट शक्ति है।

कबीर की काव्य भाषा:

कबीर की काव्य भाषा अपनी एक विशिष्ट पहचान सिद्ध करती है। उनकी भाषा को साधु कड़ी सधुक्कडी अथवा पंचमेल खिचड़ी कहा जाता है। यदि उनकी भाषा का विश्लेषण परंपरागत काव्य भाषण के दृष्टिकोण से किया जाए तो वह काव्य प्रतीत नहीं होता है लेकिन यदि उनकी भाषा को लोकवादी दृष्टिकोण अथवा लोकमत की भावनाओं के आधार पर परखा जाए तो कबीर वाणी के महान बादशाह सिद्ध होते हैं। आचार्य शुक्ल कबीर की कविता क्षमता से प्रभावित होते हैं लेकिन उनकी भाषागत साधारणता पर लिखते हैं कि “भाषा बहुत परिष्कृत और परिमार्जित न होने पर भी कबीर की युक्ति में कहीं-कहीं विलक्षण प्रभाव और चमत्कार है।” कबीर को सर्वप्रथम एक नवीन दृष्टिकोण से देखने वाले समीक्षक आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी उनकी भाषा पर लिखते हैं कि “भाषा पर कबीर का जबरदस्त अधिकार था। वे वाणी के डिक्टेटर थे। जिस बात को उन्होंने जिस रूप में प्रकट करना चाहा है, उसे उसी रूप में भाषा से कहलवा लिया है, बन गया है तो सीधे-सीधे नहीं तो दरेरा देकर। भाषा कुछ कबीर के सामने लाचार सी नजर आती है। उसमें मानो ऐसी हिम्मत ही नहीं है कि इस लापरवाह फ़क्कड़ की किसी फरमाइश को नाही कर सके।” कबीर की भाषा का सबसे विशिष्ट गुण है संदर्भ के अनुसार सटीक शब्दों का चयन। जब वे मुल्लाओं पर आक्रमण करते हैं, तो उर्दू फारसी शब्द बढ़ जाते हैं और जब पंडितों पर आक्रमण करते हैं, तो तत्सम और तद्भव शब्द बढ़ जाते हैं। उनकी भाषा के संदर्भ में सुनीति कुमार चटर्जी अपनी पुस्तक ’The Origin and Development of the Bengali Language’ में कबीर की भाषा और काव्य शैली की सराहना करते हुए कहती है कि “वे एक कुशल भाषा-शिल्पी थे, जिन्होंने ठेठ भारतीय जनभाषा में गूढ़ दार्शनिक सत्य व्यक्त किए।” अत: यह तो सिद्ध है कि कबीर जा भाषा पर जैसा अधिकार था वैसा अधिकार बहुत कम कवि, विचारक और बुद्धिजीवियों के पास होती है।

कबीर के व्यंग्यात्मक दृष्टिकोण:

कबीर व्यंग्यात्मक भाषा के महान खिलाड़ी थे। इस संदर्भ में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी कहते हैं कि “अत्यंत सीधी भाषा में वह ऐसी चोट करते हैं कि चोट खाने वाला केवल धूल झाड़ कर चल देने के सिवा कोई और रास्ता नहीं पता। जब कबीर सामाजिक कुरीतियों पर आक्रमण करते हैं, तब उनकी भाषा में गालीनुमा शब्द आ जाते हैं और जब ईश्वर से विरह अनुभव करते हैं, तब सूफियाना भाव के श्रृंगार रस और माधुरी गुण की प्रधानता हो जाती है।” कबीर की भाषा असंख्य प्रतीकों और अलंकारों के उदाहरण से भरी पड़ी है। उनकी प्रतीकात्मक भाषा से अमूर्त भाव स्पष्ट रूप से मूर्त एवं जीवंत होता है। कबीर अपनी भाषा को उलटबासी शैली का भी स्वरूप प्रदान करते हैं।

कबीर के दोहों का महत्व:

कबीर के दोहों को पढ़कर हमें कबीर के समग्र दृष्टिकोण का एक संक्षिप्त स्वरूप प्राप्त हो जाता है। जैसे गुरु के संदर्भ में कबीर की भावना क्या है, ईश्वर, मरण, बाहरी आडंबर, माया से चेतावनी, माया को नियंत्रित करने का महत्व, कथनी और करनी में एकता, बाहरी वेशभूषा और आंतरिक माया की स्वच्छता का महत्व, संगति का प्रभाव, जीवन की सार्थकता, ईश्वर प्राप्ति की राह, स्वयं के शरीर में ईश्वरीय तत्व का अनुभव, समाज की विभिन्न कुरीतियों के संदर्भ में कबीर का दृष्टिकोण आदि विभिन्न विषयों से संबंधित दोहे का चयन किया गया है।

संदर्भ ग्रंथ:

  1. रवींद्रनाथ ठाकुर, Songs of Kabir, Macmillan London परिचय खंड से
  2. हज़ारी प्रसाद द्विवेदी, कबीर, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, कबीर का व्यक्तित्व भाग से
  3. डॉ. रामविलास शर्मा, निराला की साहित्य साधना (भाग-1), राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, ‘कबीर और उनका युग’ खंड से
  4. विश्वनाथ त्रिपाठी, हिंदी साहित्य का इतिहास, साहित्य भवन इलाहाबाद से प्रकाशित।
  5. राहुल सांकृत्यायन, कबीर, किताब महल, इलाहाबाद, ‘कबीर का समाजवाद’ अध्याय से
  6. सुनीति कुमार चटर्जी, द ऑरिजिन एंड डेवलपमेंट ऑफ़ द बंगाली लैंग्वेज, कलकत्ता यूनिवर्सिटी प्रेस, कोलकाता, ‘कबीर’ खंड से
  7. डॉ. नामवर सिंह, दूसरी परम्परा की खोज, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, ‘कबीर’ शीर्षक वाले लेख से
error: Content is protected !!