दिनकर द्वारा रचित खंडकाव्य Rashmirathi रश्मिरथी में कर्ण भगवान परशुराम के आश्रम पहुँचता है और वहाँ शिक्षा प्राप्त करता है। प्रस्तुत भाग में परशुराम आश्रम के वर्णन से लेकर गुरु द्वारा दी जा रही सामाजिक शिक्षा का वर्णन तक शामिल किया गया है।
Rashmirathi द्वितीय सर्ग भाग: एक
शीतल, विरल एक कानन शोभित अधित्यका के ऊपर,
कहीं उत्स-प्रस्त्रवण चमकते, झरते कहीं शुभ निर्झर।
जहाँ भूमि समतल, सुन्दर है, नहीं दीखते है पाहन,
हरियाली के बीच खड़ा है, विस्तृत एक उटज पावन।
Rashmirathi कठिन शब्द: शीतल (उत्तेजनाहीन) Cool, विरल Rare, कानन forest, अधित्यका, Mountain, उत्स-प्रस्त्रवण (जलधारा) water stream, निर्झर Waterfalls, समतल plane, पाहन Stone, विस्तृत extensive, उटज (पर्ण कुटी) cottage, पावन holy
व्याख्या: एक पहाड़ी के ऊपर निर्जन शांत उत्तेजना रहित वन शोभा दे रहा है। कहीं जलधाराएँ चमक रही हैं, तो कहीं स्वच्छ झरने झर रहे हैं। जहाँ की भूमि समतल सपाट और सुंदर है वहाँ किसी प्रकार के पत्थर भी नहीं दिख रहे हैं। ऐसी सुंदर हरियाली के बीच एक विशाल पवित्र पर्णकुटी है।
विशेष: प्रस्तुत पंक्तियों में दिनकर जी एक पवित्र वन का विभिन्न विशेषताओं के साथ चित्रण किया है। खड़ी बोली हिंदी में तत्सम शब्दों का प्रयोग हुआ है।
आप यहाँ आदिकालीन विशेषताएँ पढ़ सकते हैं।
आस-पास कुछ कटे हुए पीले धनखेत सुहाते हैं,
शशक, मूस, गिलहरी, कबूतर घूम-घूम कण खाते हैं।
कुछ तन्द्रिल, अलसित बैठे हैं, कुछ करते शिशु का लेहन,
कुछ खाते शाकल्य, दीखते बड़े तुष्ट सारे गोधन।
कठिन शब्द धनखेत Harvested, सुहाते Pleasant हैं, शशक (खरगोश, खरहा) rabbit, मूस, गिलहरी Squirrels, लेहन (जीभ से चाटते हुए प्यार करना), तन्द्रिल Restless, अलसित Lazy, शिशु Baby, शाकल्य (ज्यो, तील आदि के दाने) तुष्ट Satisfied, गोधन Cows
भावार्थ: उस पवित्र वन में पर्णकुटी के आसपास कुछ पीले खेत शोभा दे रहे हैं। उन खेतों में खरहा, खरगोश, चूहा, गिलहरी आदि यहाँ वहाँ घूम-घूम कर फसल के कण खा रहे हैं। कुछ अर्ध निद्रा में आलस युक्त बैठे हैं, तो कुछ अपने शिशु को चाट-चाट कर प्रेम कर रहे हैं। कुछ जो तिल आदि के दाने खा रहे हैं सरी गाये संतुष्ट हैं।
विशेष: प्रस्तुत पंक्तियों में दिनकर उस वन में शोभित पर्णकुटिया के आसपास जीव-जंतुओं का वर्णन कर रहे हैं। गिलहरी, खरगोश आदि की चहल कदमी मनमोहन लेती है। खड़ी बोली हिंदी में तत्सम शब्दों का प्रयोग हुआ है।
हवन-अग्नि बुझ चुकी, गन्ध से वायु, अभी, पर, माती है,
भीनी-भीनी महक प्राण में मादकता पहुँचती है,
धूम-धूम चर्चित लगते हैं तरु के श्याम छदन कैसे?
झपक रहे हों शिशु के अलसित कजरारे लोचन जैसे।
कठिन शब्द: हवन-अग्नि Holi Ritual, गन्ध Smell, भीनी-भीनी महक Sweet smell, मादकता intoxicates तरु tree, लोचन eyes
भावार्थ: वहाँ हवन की अग्नि अभी-अभी बुझ चुकी है, लेकिन वातावरण में अभी भी उस हवन की सुगंध विद्यमान है। वह सुगंध प्राणों को एक सुखद आनंद प्रदान करती है। वृक्षों की काली-काली शाखाएँ उस बुझी हुई अग्नि के धुएं से धूमिल हो रही हैं। मानो कोई बालक अपने आलस युक्त आंखें झपक रहा हो।
विशेष: प्रस्तुत पंक्तियों में दिनकर उसे पर्णकुटी के वातावरण का वर्णन किया है। हवन अग्नि तथा उसकी सुगंध वातावरण को सुख में बना चुकी है। खड़ी बोली हिंदी भाषा में तत्सम शब्दों का प्रयोग हुआ है। जैसे गंध, वायु प्राण श्याम सदन लोचन आदि।
बैठे हुए सुखद आतप में मृग रोमन्थन करते हैं,
वन के जीव विवर से बाहर हो विश्रब्ध विचरते हैं।
सूख रहे चीवर, रसाल की नन्हीं झुकी टहनियों पर,
नीचे बिखरे हुए पड़े हैं इंगुद-से चिकने पत्थर।
कठिन शब्द: आतप heat, मृग deer, रोमन्थन (जुगाली) frolic, विवर hole, विश्रब्ध confident, fearless विचरते stroll, चीवर clothes, इंगुद (एक जंगल में पाया जानेवाले वृक्ष जिसके फल चिकने पत्थर जैसे होते हैं)
भावार्थ: पहाड़ी पर स्थित उस पवित्र उपवन में पर्णकुटिया के आसपास सूर्य किरण का ताप लेते हुए हिरण आनंदित होकर जुगाली कर रहे हैं। उस उपवन के जीव-जंतु अपने घरों से बाहर निकाल कर निश्चिंत होकर विचरण कर रहे हैं। एक और आम के वृक्ष की नीचे झुकी हुई छोटी सी टहनियों पर वस्त्र सुख रहे हैं। और उसके नीचे इगुद वृक्ष के फल के समान चिकने चिकने पत्थर बिखरे पड़े हैं।
विशेष: प्रस्तुत पंक्तियों में दिनकर उस उपवन के जीव जंतुओं और प्राणियों के सुखमय और स्वच्छंद निर्भय जीवन का वर्णन करते हैं। खड़ी बोली भाषा का प्रयोग, तत्सम शब्दों का प्रयोग जैसे आतप, मृग, रोमंथन, विवर, विश्रब्ध, चीवर आदि।
अजिन, दर्भ, पालाश, कमंडलु-एक ओर तप के साधन,
एक ओर हैं टँगे धनुष, तूणीर, तीर, बरझे भीषण।
चमक रहा तृण-कुटी-द्वार पर एक परशु आभाशाली,
लौह-दण्ड पर जड़ित पड़ा हो, मानो, अर्ध अंशुमाली।
कठिन शब्द: अजिन- खाल, दर्भ- कुशा या कुश, तप penance, साधन appliance, धनुष bow, तूणीर string, तीर arrow, भीषण horrific, तृण-कुटी grass hut, परशु halberd, आभाशाली shining brightly लौह-दण्ड iron rod, जड़ित fixed, अर्ध अंशुमाली half sun
भावार्थ: उस पर्णकुटिया के प्रांगण में एक और खाल, कुश, टेसू, कमंडल आदि तपश्चार्य के साधन हैं। तो दूसरी ओर धनुष, तूणीर, बरछे, भाले आदि बड़े-बड़े हथियार टंगे हुए हैं। उस पर्णकुटी के द्वार पर एक कुल्हाड़ी के आकार का प्रसिद्ध अस्त्र जिसे परशु कहा जाता है। वह आभा युक्त परशु चमक रहा है। उसे देखकर ऐसा लग रहा है, मानो लोहे के दंड पर अर्ध सूर्य को जड़ दिया गया हो। (अर्थात लोहे की छड़ी पर अर्ध सूर्य को स्थापित कर दिया गया हो।)
विशेष: प्रस्तुत पंक्तियों में दिनकर द्वारा भगवान परशुराम के आश्रम तथा उस पर्णकुटी के प्रांगण में स्थित विभिन्न प्रकार की वस्तुओं तपश्चार्य के साधनों और विभिन्न हथियारों का वर्णन किया गया है। खड़ी बोली हिंदी भाषा में तत्सम शब्दों का प्रयोग हुआ है जैसे अजिन, दर्भ, कमंडलु, कुटी द्वार, दंड आदि।
श्रद्धा बढ़ती अजिन-दर्भ पर, परशु देख मन डरता है,
युद्ध-शिविर या तपोभूमि यह, समझ नहीं कुछ पड़ता है।
हवन-कुण्ड जिसका यह उसके ही क्या हैं ये धनुष-कुठार?
जिस मुनि की यह स्रुवा, उसी की कैसे हो सकती तलवार?
कठिन शब्द: श्रद्धा reverence, परशु halberd, युद्ध-शिविर war camp, तपोभूमि penance land, स्रुवा (हवन की अग्नि में घी की आहुति देने के लिए प्रयोग की जानेवाली लकड़ी की कुलछी), तलवार sword
भावार्थ: उन तपश्चार्य के साधन खाल, कुश, टेसू आदि को देखकर श्रद्धा भाव बढ़ता जाता है परंतु दूसरी ओर परशु को देखकर मन डरने लगता हैदल अर्थात घबराहट होने लगती है। इन दोनों प्रकार की वस्तुओं और हथियारों को देखकर यह समझ नहीं आता है कि यह एक युद्ध शिविर है या तपश्चार्य करने की तपोभूमि। जिस ऋषि का यह हवन कुंड है क्या उसी के यह धनुष और तलवार है? जिस मुनि की यह हवन कुंड में घी अर्पित करने की कुलची है क्या उसी की यह तलवार भी है?
विशेष: प्रस्तुत पंक्तियों में महाकवि दिनकर द्वारा उस पर्णकुटी के प्रांगण में स्थित वस्तुओं और हथियारों को देखकर जो मानस्थिति उत्पन्न होती है, उसका वर्णन किया गया है। खड़ी बोली हिंदी का प्रयोग हुआ है। तत्सम शब्दों का अधिक प्रयोग हुआ है। जैसे श्रद्धा, परशु, युद्ध, तपोभूमि, हवनकुंड, मुनि, श्रुवा आदि।
आयी है वीरता तपोवन में क्या पुण्य कमाने को?
या संन्यास साधना में है दैहिक शक्ति जगाने को?
मन ने तन का सिद्ध-यन्त्र अथवा शस्त्रों में पाया है?
या कि वीर कोई योगी से युक्ति सीखने आया है?
कठिन शब्द: वीरता bravery, तपोवन penance farest, पुण्य virtue, संन्यास, abandonment, दैहिक physical, तन body, शस्त्र weapons योगी ascetic
भावार्थ: क्या इस तपोवन में कोई वीरता या वीर पुरुष पुण्य कमाने आया है? या फिर सन्यास साधना से कोई दैहिक शक्ति जगाने आया है? मन ने अपना सिद्धि यंत्र अथवा सफलता का यंत्र अपने शरीर में पाया है अथवा शास्त्रों में पाया है या फिर कोई वीर पुरुष यहाँ किसी योगी से कला एवं रणनीति सीखने आया है?
विशेष: प्रस्तुत पंक्तियों में दिनकर द्वारा पर्णकुटिया के प्रांगण में दिख रहे उन हथियारों और वस्तुओं को देख कर मन में उठने वाले विभिन्न प्रश्नों का अंकन किया गया है। खड़ी बोली भाषा का प्रयोग जिसमें तत्सम शब्दों का अधिक प्रयोग हुआ है। जैसे: वीरता, पुण्य, साधना, दैहिक, तन, सिद्ध, योगी आदि।
परशु और तप, ये दोनों वीरों के ही होते श्रृंगार,
क्लीव न तो तप ही करता है, न तो उठा सकता तलवार।
तप से मनुज दिव्य बनता है, षड् विकार से लड़ता है,
तन की समर-भूमि में लेकिन, काम खड्ग ही करता है।”
कठिन शब्दों के अर्थ:
- परशु: कुल्हाड़ी या शस्त्र, विशेष रूप से वह जो वीर योद्धाओं द्वारा उपयोग की जाती है। (Axe or weapon, specifically associated with warriors or sages like Parashurama.) 2. तप: धार्मिक अनुशासन, आत्मशुद्धि के लिए कठिन साधना (Austerity or spiritual penance for self-purification) 3. वीर: बहादुर या साहसी व्यक्ति (Brave or courageous person) 4. श्रृंगार: सजावट या आभूषण (Ornament or embellishment) 5. क्लीव: कायर या जो साहसहीन हो (Coward or timid person) 6. षड् विकार: छह मानसिक बुराइयाँ—काम (वासना), क्रोध (गुस्सा), लोभ (लालच), मोह (मायाजाल), मद (अहंकार), मत्सर (ईर्ष्या) (Six mental vices—lust, anger, greed, attachment, pride, envy) 7. समर-भूमि: युद्ध का मैदान (Battlefield) 8. खड्ग: तलवार या शस्त्र (Sword or weapon) 9. दिव्य: अद्भुत, पवित्र या अलौकिक (Divine, extraordinary, or supernatural)
संदर्भ:
ये पंक्तियाँ रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की महाकाव्य रचना “रश्मिरथी” से ली गई हैं। इस अंश में कर्ण के चरित्र को ओजस्वी रूप में प्रस्तुत करते हुए वीरता, तपस्या और कर्म के महत्व का वर्णन किया गया है। यह पंक्तियाँ कर्ण की मानसिकता और वीरता के प्रति उनके दृष्टिकोण को दर्शाती हैं, जहाँ तप और शौर्य को मनुष्य का सबसे बड़ा आभूषण बताया गया है।
व्याख्या:
इन पंक्तियों में दिनकर ने वीरता और तपस्या का ऐसा समन्वय प्रस्तुत किया है, जो मनुष्य को वास्तविक रूप से महान और शक्तिशाली बनाता है। यहाँ ‘परशु’ (शस्त्र) और ‘तप’ (धार्मिक अनुशासन) को केवल वीरों के आभूषण कहा गया है, जो यह दर्शाता है कि वीर व्यक्ति ही समाज में संघर्ष करने और आदर्श प्रस्तुत करने का सामर्थ्य रखते हैं।
दिनकर यह स्पष्ट करते हैं कि कायर (क्लीव) व्यक्ति न तो तप कर सकता है, न ही युद्ध में तलवार उठा सकता है। केवल सच्चे योद्धा ही तप के माध्यम से अपनी आत्मा को शुद्ध करते हैं और षड् विकारों (काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर) से संघर्ष कर पाते हैं।
परंतु इस मानसिक और आध्यात्मिक संघर्ष के साथ-साथ, दिनकर बताते हैं कि जीवन के भौतिक संघर्षों को पार करने के लिए कर्मठता और शौर्य (जिसे यहाँ ‘खड्ग’ कहा गया है) आवश्यक है। केवल तपस्या या विचारों की शुद्धता पर्याप्त नहीं है; जीवन की कठिनाइयों और युद्धभूमि में विजय पाने के लिए शक्ति और कर्म का होना अनिवार्य है।
विशेष:
वीर रस का संचार: पंक्तियों में वीरता, साहस, और प्रेरणा को ओजस्वी रूप से प्रस्तुत किया गया है। प्रतीकों का प्रयोग: ‘परशु’, ‘तप’, और ‘खड्ग’ जैसे प्रतीकों से शौर्य और आत्म-शुद्धि का गूढ़ अर्थ व्यक्त किया गया है। अलंकार: अनुप्रास अलंकार (“तप से मनुज दिव्य बनता है”) और विरोधाभास (‘क्लीव’ और ‘वीर’) का प्रभावशाली उपयोग। ओजपूर्ण भाषा: सशक्त शब्द चयन और लयात्मकता से पंक्तियाँ अत्यंत प्रभावशाली बनती हैं। भाव गहनता: शारीरिक और मानसिक संघर्ष का अद्भुत संतुलन दिखाया गया है।
“किन्तु, कौन नर तपोनिष्ठ है यहाँ धनुष धरनेवाला?
एक साथ यज्ञाग्नि और असि की पूजा करनेवाला?
कहता है इतिहास, जगत् में हुआ एक ही नर ऐसा,
रण में कुटिल काल-सम क्रोधी तप में महासूर्य-जैसा!”
कठिन शब्दों के अर्थ:
- तपोनिष्ठ: तपस्या में निष्ठावान, तपस्वी (Dedicated to asceticism or penance) 2. यज्ञाग्नि: यज्ञ की पवित्र अग्नि (The sacred fire of sacrificial rituals) 3. असि: तलवार (Sword) 4. कुटिल काल-सम: विकराल काल (मृत्यु) के समान (Fierce and destructive like death itself) 5. महासूर्य-जैसा: महान सूर्य के समान तेजस्वी और उज्ज्वल (Radiant and noble like the great Sun)
संदर्भ:
ये पंक्तियाँ रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की कृति “रश्मिरथी” के द्वितीय सर्ग से ली गई हैं। इन पंक्तियों में कवि महाभारत के पात्र कर्ण की महानता का वर्णन करते हुए यह बताते हैं कि वह एकमात्र ऐसा योद्धा था जो तप और युद्ध दोनों में समान रूप से अद्वितीय था।
व्याख्या:
कवि कहते हैं कि इस संसार में कौन ऐसा मनुष्य है जो तपस्वी भी हो और योद्धा भी? कौन ऐसा है जो यज्ञ-अग्नि (धर्म और तप का प्रतीक) और तलवार (युद्ध और शक्ति का प्रतीक) की पूजा एक साथ करता हो? इतिहास साक्षी है कि ऐसा सिर्फ एक ही व्यक्ति हुआ है। वह व्यक्ति कर्ण था, जो रणभूमि में क्रोध में काल के समान विनाशकारी था, लेकिन तपस्या में सूर्य के समान तेजस्वी और उज्ज्वल था। कवि ने यहाँ कर्ण के अद्वितीय व्यक्तित्व को चित्रित किया है, जो युद्ध-कला और आत्मानुशासन, दोनों में श्रेष्ठ था।
विशेषताएँ:
वीर रस: इन पंक्तियों में कर्ण के अदम्य साहस और वीरता का वर्णन है, जो वीर रस की प्रधानता को दर्शाता है। उपमा अलंकार: कर्ण की तुलना “कुटिल काल” और “महासूर्य” से की गई है। “रण में कुटिल काल-सम” “तप में महासूर्य-जैसा” इतिहास का आह्वान: कवि ने इतिहास को प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया है, जिससे पंक्तियों की प्रामाणिकता बढ़ती है। प्रश्नोत्तर शैली: प्रारंभिक पंक्तियाँ प्रश्न के रूप में हैं, जो पाठक की जिज्ञासा बढ़ाती हैं।
“मुख में वेद, पीठ पर तरकस, कर में कठिन कुठार विमल,
शाप और शर, दोनों ही थे, जिस महान् ऋषि के सम्बल।
यह कुटीर है उसी महामुनि परशुराम बलशाली का,
भृगु के परम पुनीत वंशधर, व्रती, वीर, प्रणपाली का।”
कठिन शब्दों के अर्थ:
- तरकस: तीर रखने का स्थान (Quiver (container for arrows) 2. कठिन कुठार: कठोर और मजबूत फरसा (A tough and sturdy axe) 3. विमल: शुद्ध, निर्मल (Pure, spotless) 4. शाप: तपस्वी का श्राप या अभिशाप (Curse (used in the context of spiritual authority). 5. सम्बल: सहारा, शक्ति का साधन (Support or strength) 6. व्रती: व्रत का पालन करने वाला, तपस्वी (One who observes vows, ascetic) 7. प्रणपाली: प्रणों का पालन करने वाला (One who adheres to their vows)
संदर्भ:
ये पंक्तियाँ रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की महाकाव्य “रश्मिरथी” के द्वितीय सर्ग से ली गई हैं। इस भाग में कर्ण अपने गुरु परशुराम के कुटीर में प्रवेश करता है। यहाँ कवि ने परशुराम के महान व्यक्तित्व और अद्वितीय गुणों का वर्णन किया है। परशुराम वह ऋषि थे, जिन्होंने अपने तप, शस्त्र-विद्या और प्रतिज्ञाओं से विश्व में अपार शक्ति और आदर्श स्थापित किए।
व्याख्या:
कवि परशुराम का परिचय देते हुए कहते हैं कि वह ऐसे ऋषि थे जिनके मुख में वेदों का ज्ञान था और पीठ पर तरकस में तीर। उनके हाथों में शुद्ध और कठोर कुठार (फरसा) था। उनका सम्बल (सहारा) न केवल तप और ज्ञान का शाप था, बल्कि युद्ध में विजय के लिए तीव्र और प्रचंड बाण भी थे।
यह स्थान उसी महान ऋषि परशुराम का कुटीर है, जो भृगु वंश के पवित्र संत थे। उनकी महानता केवल उनकी शक्ति में नहीं थी, बल्कि उनके आदर्श, तपस्वी जीवन और साहसिक प्रणों में भी थी। परशुराम एक आदर्श योद्धा और तपस्वी का प्रतीक हैं, जो धर्म, बल, और निष्ठा का प्रतिनिधित्व करते हैं।
विशेषताएँ:
वीर रस: परशुराम के वीर और तपस्वी रूप का चित्रण इस काव्यांश में वीर रस को उजागर करता है। उपमा अलंकार: ऋषि के गुणों को प्रतीकात्मक रूप से व्यक्त किया गया है। “मुख में वेद, पीठ पर तरकस।” चित्रात्मकता: परशुराम के व्यक्तित्व और उनके आश्रम का चित्रण इतनी स्पष्टता से किया गया है कि पाठक उनके तेजस्वी रूप को अपनी आँखों के सामने देख सकता है। संयोजन: शस्त्र और शास्त्र का अनूठा संयोजन परशुराम के व्यक्तित्व की विशेषता है, जो इन पंक्तियों में उत्कृष्ट रूप से व्यक्त किया गया है।
“हाँ-हाँ, वही, कर्ण की जाँघों पर अपना मस्तक धरकर,
सोये हैं तरुवर के नीचे, आश्रम से किञ्चित् हटकर।
पत्तों से छन-छन कर मीठी धूप माघ की आती है,
पड़ती मुनि की थकी देह पर और थकान मिटाती है।”
कठिन शब्दों के अर्थ:
- तरुवर: पेड़ (Tree) 2. आश्रम: ऋषि का निवास स्थान (Hermitage) 3. किञ्चित: थोड़ा, कुछ मात्रा में (Slightly, a little) 4. माघ: हिंदू पंचांग का एक सर्दी का महीना (Magha (a month in the Hindu calendar corresponding to winter) 5. थकी देह: थकावट से ग्रस्त शरीर (Exhausted body)
संदर्भ:
ये पंक्तियाँ रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की “रश्मिरथी” के द्वितीय सर्ग से ली गई हैं। इस भाग में कर्ण और उनके गुरु परशुराम के बीच एक महत्वपूर्ण घटना का वर्णन है। परशुराम थकान के कारण कर्ण की जाँघों पर सिर रखकर सो जाते हैं। इसी दृश्य का कवि ने इन पंक्तियों में प्राकृतिक और भावनात्मक रूप से सुंदर चित्रण किया है।
व्याख्या:
कवि ने इस प्रसंग में गुरु-शिष्य के बीच की निष्ठा और सेवा को भावपूर्ण ढंग से प्रस्तुत किया है। कर्ण के गुरु परशुराम, थकान से ग्रस्त होकर, आश्रम से थोड़ी दूर एक पेड़ के नीचे कर्ण की गोद में अपना मस्तक रखकर सो जाते हैं। चारों ओर शांत और मधुर वातावरण है। माघ (सर्दी के मौसम) की हल्की-हल्की मीठी धूप पेड़ की पत्तियों से छनकर नीचे गिर रही है और परशुराम के थके हुए शरीर को आराम और सुकून प्रदान कर रही है।
कर्ण की गुरु भक्ति और परशुराम की थकान, दोनों का गहरा और मानवीय चित्रण यहाँ किया गया है। यह दृश्य केवल एक घटना नहीं, बल्कि तप, सेवा, और शिष्य-धर्म का प्रतीक है।
इस प्रसंग की विशेषता:
यह दृश्य न केवल गुरु-शिष्य के संबंधों की पवित्रता को दर्शाता है, बल्कि यह आगे चलकर कर्ण के जीवन की महत्वपूर्ण घटना का संकेत भी देता है। जब परशुराम को यह ज्ञात होता है कि कर्ण क्षत्रिय हैं, तो वह उन्हें शाप देते हैं, जिससे कर्ण का भाग्य बदल जाता है।
विशेषताएँ:
प्रकृति चित्रण: कवि ने माघ की मीठी धूप और पत्तों से छनकर आती किरणों का सौंदर्यपूर्ण वर्णन किया है। मानवीकरण: “थकान मिटाती है” में धूप को मानवीय गुण दिया गया है, जो परशुराम की थकावट दूर करती है। शांति का वातावरण: गुरु और शिष्य के इस दृश्य में चारों ओर का वातावरण अत्यंत शांत और प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर है। भावुकता और सेवा भाव: कर्ण की गुरु-भक्ति और परशुराम की थकावट का सुंदर तालमेल दर्शाया गया है।
“कर्ण मुग्ध हो भक्ति-भाव में मग्न हुआ-सा जाता है,
कभी जटा पर हाथ फेरता, पीठ कभी सहलाता है,
चढें नहीं चीटियाँ बदन पर, पड़े नहीं तृण-पात कहीं,
कर्ण सजग है, उचट जाय गुरुवर की कच्ची नींद नहीं।”
कठिन शब्दों के अर्थ:
- मुग्ध: मोहित, मंत्रमुग्ध (Mesmerized, enchanted) 2. भक्ति-भाव: श्रद्धा और समर्पण का भाव (Devotion and reverence) 3. जटा: ऋषि की उलझी और मोटी बालों की चोटी (Matted hair) 4. सहलाना: धीरे-धीरे हाथ फेरना (To gently stroke or caress) 5. उचट जाना: भंग हो जाना, टूट जाना (To get disturbed or interrupted (referring to sleep) 6. कच्ची नींद: हल्की या अस्थिर नींद (Light or fragile sleep)
संदर्भ:
ये पंक्तियाँ “रश्मिरथी” के द्वितीय सर्ग से ली गई हैं, जहाँ कर्ण अपने गुरु परशुराम की सेवा में पूर्ण रूप से मग्न हैं। परशुराम, कर्ण की जाँघ पर सिर रखकर सो रहे हैं, और कर्ण उनकी गहरी नींद को भंग होने से बचाने के लिए पूरी तरह सजग और समर्पित है। इस दृश्य में कर्ण के गुरु-भक्ति और सेवा भाव का मार्मिक चित्रण किया गया है।
व्याख्या:
कर्ण अपने गुरु परशुराम की सेवा में इतने तल्लीन हैं कि उनका ध्यान पूरी तरह गुरुवर की नींद और आराम पर केंद्रित है। उनका भक्ति-भाव उन्हें मंत्रमुग्ध कर देता है। वे कभी परशुराम की जटाओं को धीरे-धीरे सहलाते हैं और कभी उनकी पीठ पर हाथ फेरते हैं ताकि उन्हें कोई असुविधा न हो।
कर्ण इस बात का विशेष ध्यान रखते हैं कि गुरुवर के शरीर पर कोई चींटी न चढ़े या कहीं कोई तिनका न गिरे, जो उनकी नींद को भंग कर सके। कर्ण की सजगता और समर्पण यह दर्शाते हैं कि वे गुरु के प्रति अपनी श्रद्धा में किसी भी प्रकार की कमी नहीं आने देना चाहते। उनकी सेवा और भक्ति का यह भाव, उनके व्यक्तित्व की महानता को उजागर करता है।
इस प्रसंग का महत्व:
यह प्रसंग न केवल गुरु-शिष्य के संबंध की पवित्रता को दर्शाता है, बल्कि यह कर्ण के चरित्र का वह पक्ष भी उजागर करता है, जो उनकी सेवा, समर्पण और श्रद्धा को प्रकट करता है। इस घटना के बाद ही परशुराम को कर्ण की सच्चाई का पता चलता है, जो कथा में एक महत्वपूर्ण मोड़ है।
विशेषताएँ:
वीर रस और शांत रस का समन्वय: कर्ण की भक्ति और सेवा के इस दृश्य में शांत रस प्रमुख है, जो गुरु-शिष्य के संबंधों की गहराई को दिखाता है। चित्रात्मकता: कवि ने कर्ण की हर क्रिया का सजीव चित्रण किया है—उनका गुरु की जटाओं पर हाथ फेरना, पीठ सहलाना, और चीटियों या तिनकों को हटाने का प्रयास। भावुकता: कर्ण की गुरु भक्ति और उनकी निष्ठा का मार्मिक चित्रण पाठक के हृदय को छू लेता है। सजगता का वर्णन: “उचट जाय गुरुवर की कच्ची नींद नहीं” पंक्ति में कर्ण की सतर्कता और गुरु के प्रति सम्मान का भाव स्पष्ट होता है।
“’वृद्ध देह, तप से कृश काया , उस पर आयुध-सञ्चालन,
हाथ, पड़ा श्रम-भार देव पर असमय यह मेरे कारण।
किन्तु, वृद्ध होने पर भी अंगों में है क्षमता कितनी,
और रात-दिन मुझ पर दिखलाने रहते ममता कितनी।”
कठिन शब्दों के अर्थ:
- वृद्ध देह: बुजुर्ग शरीर (Aged body) 2. तप से कृश काया: तपस्या के कारण कमजोर शरीर (A frail body due to penance) 3. आयुध-संचालन: शस्त्र चलाने की प्रक्रिया (Weapon handling or operation) 4. श्रम-भार: मेहनत का बोझ (The burden of labor or toil) 5. असमय: समय से पहले या अनावश्यक रूप से (Untimely or unnecessarily) 6. ममता: स्नेह, प्यार (Affection, love)
संदर्भ:
ये पंक्तियाँ रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की “रश्मिरथी” के द्वितीय सर्ग से ली गई हैं। इस प्रसंग में कर्ण अपने गुरु परशुराम के तपस्वी, वृद्ध और श्रमसाध्य जीवन को देखकर उनके प्रति कृतज्ञता और ममता का भाव व्यक्त करता है। कर्ण गुरु की कृश काया और उनकी सेवा में समर्पण को देखकर विनम्रता और भावुकता से भर जाता है।
व्याख्या:
कर्ण कहते हैं कि उनके गुरुदेव परशुराम की देह वृद्धावस्था में पहुँच गई है और तपस्या के कारण उनकी काया अत्यंत कृश (पतली और कमजोर) हो गई है। इसके बावजूद, वे अपने आयुध (शस्त्र) के संचालन में लगे रहते हैं। कर्ण यह अनुभव करते हैं कि उनके कारण गुरुदेव पर अनायास ही श्रम का भारी बोझ आ गया है।
कर्ण को यह देखकर आश्चर्य होता है कि वृद्ध होने के बावजूद, उनके अंगों में कितनी शक्ति और क्षमता बची हुई है। इसके साथ ही, वे रात-दिन अपने शिष्य (कर्ण) के प्रति जो ममता और स्नेह दिखाते हैं, वह कर्ण के मन में गहरी कृतज्ञता का भाव जगाता है। यह कर्ण की गुरु के प्रति भक्ति, उनकी विनम्रता और श्रद्धा को प्रकट करता है।
इस प्रसंग की महत्ता:
यह प्रसंग गुरु-शिष्य संबंध की पवित्रता और त्याग को दर्शाता है। कर्ण का यह आत्मचिंतन उनकी सेवा और गुरु-भक्ति की भावना को प्रकट करता है। यह भी संकेत करता है कि कर्ण अपने गुरुदेव की सीमाओं और त्याग के प्रति सजग हैं।
विशेषताएँ:
भावुकता और कृतज्ञता का भाव: कर्ण के शब्द उनके विनम्र और कृतज्ञ स्वभाव को प्रकट करते हैं। शांति और करुणा का रस: परशुराम के तपस्वी जीवन और उनकी ममता को चित्रित करने में करुणा और शांति का रस झलकता है। उपमा अलंकार: वृद्ध और तपस्वी काया को कृश और आयुध-संचालन से जोड़ा गया है। प्रश्न और आत्म-ग्लानि का स्वर: कर्ण अपने गुरुदेव के प्रति अपनी जिम्मेदारी और उनके त्याग का गहराई से अनुभव कर रहे हैं।
“’कहते हैं , ‘ओ वत्स! पुष्टिकर भोग न तू यदि खायेगा,
मेरे शिक्षण की कठोरता को कैसे सह पायेगा?
अनुगामी यदि बना कहीं तू खान-पान में भी मेरा,
सूख जायगा लहू, बचेगा हड्डी-भर ढाँचा तेरा।”
कठिन शब्दों के अर्थ:
- वत्स: पुत्र या प्रिय शिष्य (Dear child or disciple) 2. पुष्टिकर: शरीर को ताकत और पोषण देने वाला (Nutritious or nourishing) 3. भोग: भोजन या भौतिक सुख (Food or material pleasures) 4. अनुगामी: अनुसरण करने वाला, अनुयायी (Follower or imitator) 5. लहू: रक्त (Blood) 6. ढाँचा: केवल हड्डियों का शरीर (Skeleton or frail frame)
संदर्भ:
ये पंक्तियाँ “रश्मिरथी” के द्वितीय सर्ग से ली गई हैं, जहाँ कर्ण अपने गुरु परशुराम की कठोर शिक्षा और उनके उपदेशों का स्मरण कर रहा है। परशुराम, जो स्वयं तपस्वी जीवन के अनुयायी हैं, अपने शिष्य को चेताते हैं कि वह उनकी तपस्वी जीवनशैली का अनुसरण न करे, क्योंकि इससे उसका शरीर कमजोर हो जाएगा और वह उनकी कठोर शिक्षा को सहन नहीं कर पाएगा।
व्याख्या:
परशुराम कर्ण से कहते हैं कि यदि वह (कर्ण) पौष्टिक और ऊर्जा देने वाले भोजन का सेवन नहीं करेगा, तो उनकी दी गई कठोर शिक्षा और कठिन परिश्रम को सहन नहीं कर पाएगा। गुरु परशुराम अपने तपस्वी जीवन की ओर इशारा करते हुए समझाते हैं कि यदि कर्ण भी उनके खान-पान के अनुशासन का अनुसरण करेगा, तो उसका शरीर कमजोर होकर केवल हड्डियों का ढाँचा भर रह जाएगा।
यह उपदेश न केवल कर्ण के शारीरिक स्वास्थ्य के लिए है, बल्कि इसमें यह शिक्षा भी छिपी है कि हर व्यक्ति की जीवनशैली उसकी भूमिका और लक्ष्य के अनुसार होनी चाहिए। परशुराम का तपस्वी जीवन उनके उद्देश्यों के लिए उपयुक्त है, लेकिन कर्ण को एक योद्धा के रूप में शक्ति और सामर्थ्य की आवश्यकता है।
इस प्रसंग का महत्व:
यह प्रसंग बताता है कि हर व्यक्ति को अपनी भूमिका के अनुसार अपनी जीवनशैली का चयन करना चाहिए। तपस्वी और योद्धा की आवश्यकताएँ अलग-अलग होती हैं। गुरु का कर्ण को पौष्टिक आहार के लिए प्रेरित करना यह दर्शाता है कि शारीरिक और मानसिक शक्ति का संतुलन सफलता के लिए अत्यंत आवश्यक है।
विशेषताएँ:
उपदेशात्मक स्वर: परशुराम के शब्दों में शिष्य को सही मार्ग दिखाने का गहरा भाव है। विरोधाभास: तपस्वी गुरु का यह कहना कि शिष्य को पौष्टिक भोजन करना चाहिए, एक रोचक विरोधाभास है। संवादात्मक शैली: गुरु और शिष्य के बीच वार्तालाप का रूप काव्य को अधिक सजीव और भावपूर्ण बनाता है। भावुकता और चिंता: परशुराम के शब्दों में कर्ण के प्रति उनकी चिंता और स्नेह झलकता है।
“’जरा सोच, कितनी कठोरता से मैं तुझे चलाता हूँ,
और नहीं तो एक पाव दिन भर में रक्त जलाता हूँ।
इसकी पूर्ति कहाँ से होगी, बना अगर तू संन्यासी,
इस प्रकार तो चबा जायगी तुझे भूख सत्यानाशी।”
कठिन शब्दों के अर्थ:
- कठोरता: सख्ती, दृढ़ता (Harshness or rigor) 2. पाव दिन: एक दिन चौथाई भाग, कुछ समय (A quarter of a day) 3. रक्त जलाना: अत्यधिक मेहनत और ऊर्जा खर्च करना (To burn blood (metaphorically for extreme effort) 4. पूर्ति: भरपाई, आवश्यकता की आपूर्ति (Replenishment or fulfillment) 5. संन्यासी: तपस्वी, जिसने भौतिक सुखों का त्याग किया हो (Ascetic or monk) 6. सत्यानाशी: नष्ट करने वाली (Destructive or ruinous)
संदर्भ:
ये पंक्तियाँ “रश्मिरथी” के द्वितीय सर्ग से ली गई हैं, जहाँ परशुराम कर्ण को कठोर प्रशिक्षण देने के दौरान उनके आहार और जीवनशैली के महत्व को समझा रहे हैं। परशुराम कर्ण से कहते हैं कि उनकी दी हुई कठिन शिक्षा को सहने के लिए ताकत और ऊर्जा की आवश्यकता है। अगर कर्ण संन्यासी बनकर तपस्वी जीवन बिताने की कोशिश करेगा, तो वह इस कठोरता को सहन नहीं कर पाएगा।
व्याख्या:
परशुराम अपने कठोर प्रशिक्षण की चर्चा करते हुए कर्ण से कहते हैं कि वे उसे बहुत कठोरता से साधना के मार्ग पर चला रहे हैं। उनकी शिक्षा इतनी कठिन है कि कर्ण को हर दिन प्रशिक्षण के दौरान अपनी शक्ति और ऊर्जा का बहुत बड़ा भाग लगाना पड़ता है, जो शरीर में रक्त को जलाने के समान है।
गुरु परशुराम चेतावनी देते हैं कि अगर कर्ण तपस्वी या संन्यासी की तरह जीवन बिताने की कोशिश करेगा, तो उसका शरीर इस कठोर परिश्रम की भरपाई नहीं कर पाएगा। भूख और थकान उसे समाप्त कर देंगी। परशुराम इस बात पर ज़ोर देते हैं कि योद्धा को हमेशा शक्ति, ऊर्जा और दृढ़ता के लिए पौष्टिक भोजन और सही जीवनशैली अपनानी चाहिए।
इस प्रसंग का महत्व:
यह प्रसंग बताता है कि किसी भी लक्ष्य को पाने के लिए सही संतुलन और जीवनशैली की आवश्यकता होती है। तपस्वी जीवनशैली और योद्धा के जीवन की आवश्यकताएँ अलग होती हैं। एक योद्धा को अपनी शारीरिक क्षमता बनाए रखने के लिए पोषण और शक्ति पर ध्यान देना चाहिए।
विशेषताएँ:
रूपक अलंकार: “रक्त जलाना” और “भूख सत्यानाशी” जैसे वाक्यांशों में गहरी प्रतीकात्मकता है। विरोधाभास: तपस्वी गुरु यह समझा रहे हैं कि शिष्य को तपस्वी जीवनशैली के बजाय बलशाली योद्धा बनने के लिए पोषण और शक्ति की आवश्यकता है। संवाद शैली: पंक्तियाँ गुरु और शिष्य के बीच वार्तालाप के रूप में हैं, जो काव्य को अधिक सजीव बनाती हैं। तार्किकता और चेतावनी: परशुराम के शब्दों में तर्क और चेतावनी का मिश्रण है, जो शिष्य के हित को स्पष्ट करता है।
“’पत्थर-सी हों मांस-पेशियाँ, लोहे-से भुज-दण्ड अभय,
नस-नस में हो लहर आग की, तभी जवानी पाती जय।
विप्र हुआ तो क्या, रक्खेगा रोक अभी से खाने पर?
कर लेना घनघोर तपस्या वय चतुर्थ के आने पर।”
कठिन शब्दों के अर्थ:
- मांस-पेशियाँ: शरीर की मांसल संरचना (Muscles) 2. भुज-दण्ड: भुजाएँ, विशेष रूप से मजबूत और बलशाली (Arms (symbolizing strength) 3. नस-नस में आग: शरीर की हर नस में ऊर्जा और साहस का संचार (Fire or energy flowing through every vein) 4. विप्र: ब्राह्मण (Brahmin) 5. घनघोर तपस्या: अत्यधिक कठिन और कड़ी साधना (Intense and severe penance) 6. वय चतुर्थ: जीवन की चौथी अवस्था, वृद्धावस्था (The fourth stage of life (old age).
संदर्भ:
ये पंक्तियाँ “रश्मिरथी” के द्वितीय सर्ग से ली गई हैं, जहाँ परशुराम कर्ण को जीवन के विभिन्न पहलुओं की शिक्षा देते हुए बताते हैं कि योद्धा के जीवन में शारीरिक शक्ति, कठोरता और ऊर्जा का क्या महत्व है। परशुराम कर्ण को समझाते हैं कि उसे अपनी युवावस्था का पूरा उपयोग करना चाहिए और तपस्वी जीवन को बाद के समय के लिए छोड़ देना चाहिए।
व्याख्या:
परशुराम कर्ण को बताते हैं कि यदि शरीर की मांसपेशियाँ पत्थर जैसी कठोर हों, भुजाएँ लोहे की तरह मजबूत और निर्भीक हों, और शरीर की हर नस में ऊर्जा और आग का संचार हो, तभी व्यक्ति अपनी युवावस्था में विजय प्राप्त कर सकता है।
गुरु यह भी कहते हैं कि यदि कर्ण ब्राह्मण (विप्र) है भी, तो इसका यह अर्थ नहीं है कि वह अभी से अपने खान-पान पर रोक लगा दे। वह उसे यह सलाह देते हैं कि जब वह अपने जीवन की चतुर्थ अवस्था (वृद्धावस्था) में पहुँचे, तब घोर तपस्या करना उचित होगा। युवावस्था शक्ति और सामर्थ्य का समय है, और इस समय का उपयोग शारीरिक और मानसिक दृढ़ता विकसित करने में करना चाहिए।
विशेषताएँ:
रूपक अलंकार: मांसपेशियों को पत्थर से, भुजाओं को लोहे से, और नसों में ऊर्जा को आग से रूपक द्वारा दर्शाया गया है। वीर रस: इन पंक्तियों में वीर रस का प्रबल प्रभाव है, जो साहस, पराक्रम, और ऊर्जा का उत्साह भरता है। उपदेशात्मक शैली: गुरु का शिष्य को युवावस्था और वृद्धावस्था के कर्तव्यों का भेद सिखाना एक उपदेशात्मक शैली को दर्शाता है। लयात्मकता: पंक्तियों में विचार और भाव एक प्रवाह के साथ प्रस्तुत किए गए हैं, जो पाठक को प्रेरित करता है।
इस प्रसंग का महत्व:
युवावस्था का सदुपयोग: युवावस्था का समय शारीरिक और मानसिक विकास, पराक्रम, और साहस के लिए है। इस समय शक्ति और ऊर्जा का सही उपयोग करना चाहिए। संतुलित जीवन दृष्टिकोण: जीवन के प्रत्येक चरण का उद्देश्य अलग-अलग होता है। तपस्या और संन्यास वृद्धावस्था में उचित हैं, लेकिन युवावस्था में शक्ति और सामर्थ्य पर ध्यान देना आवश्यक है। अनुशासन और परिश्रम: सफलता के लिए कठोर अनुशासन और परिश्रम का पालन करना आवश्यक है।
“’ब्राह्मण का है धर्म त्याग, पर, क्या बालक भी त्यागी हों?
जन्म साथ , शिलोञ्छवृत्ति के ही क्या वे अनुरागी हों?
क्या विचित्र रचना समाज की? गिरा ज्ञान ब्राह्मण-घर में,
मोती बरसा वैश्य-वेश्म में, पड़ा खड्ग क्षत्रिय-कर में।”
कठिन शब्दों के अर्थ:
- शिलोञ्छवृत्ति: शिला या पत्थर जैसी कठोर और निराकार वृत्ति (यहां पर यह व्यक्ति की स्थिति को दर्शाता है, जो कठोर और निष्क्रिय हो) (A life of stone-like hardness or inertness) 2. विचित्र: अजीब, असामान्य (Strange, unusual) 3. रचना: निर्माण, संरचना (Creation, structure) 4. गिरा: गिरना या नष्ट होना (Fallen or degenerated) 5. वेश्म: महल या निवास स्थान, विशेषकर व्यापारियों का घर (Dwelling, especially that of a merchant or wealthy person) 6. खड्ग: तलवार (Sword)
संदर्भ:
यह पंक्तियाँ “रश्मिरथी” के द्वितीय सर्ग से ली गई हैं। इन पंक्तियों में कर्ण अपने जन्म और उसके सामाजिक वर्ग के भेदभाव पर विचार कर रहे हैं। वह ब्राह्मण परिवार से जन्मे होते हुए भी एक क्षत्रिय के गुणों और अस्तित्व का अनुभव करते हैं। कर्ण यह प्रश्न उठाते हैं कि ब्राह्मण का धर्म तो त्याग का है, फिर भी क्या हर ब्राह्मण इस जीवन को त्यागी रूप में जीता है? वह समाज की रचनाओं और वर्ग विभाजन पर सवाल उठाते हैं, खासकर उस स्थिति पर जिसमें किसी ब्राह्मण घर में ज्ञान की कमी हो और वहीं किसी व्यापारी (वैश्य) के घर में धन की बौछार हो।
व्याख्या:
कर्ण यहां पर ब्राह्मण और क्षत्रिय के बीच के वर्ग भेद पर सवाल उठाते हैं। वह कहते हैं कि ब्राह्मण का धर्म त्याग का है, लेकिन क्या सभी ब्राह्मण सचमुच त्यागी होते हैं? क्या वे अपने जीवन में त्याग की राह पर चलते हैं? क्या जन्म के साथ ही किसी व्यक्ति का स्वभाव और जीवन की दिशा तय हो जाती है?
इसके बाद कर्ण समाज की रचनाओं पर सवाल उठाते हुए कहते हैं कि क्या यह विचित्र स्थिति नहीं है कि एक ब्राह्मण घर में ज्ञान का अभाव हो और एक वैश्य के घर में अपार संपत्ति और ऐश्वर्य हो? यही नहीं, कर्ण यह भी कहते हैं कि समाज में यह असंगतता दिखाती है कि एक क्षत्रिय के हाथ में खड्ग (तलवार) और शक्ति है, जबकि एक ब्राह्मण अपने ही घर में ज्ञान के बिना होता है। यह वर्गभेद और समाज के असंगत ढांचे पर कर्ण का आलोचनात्मक दृष्टिकोण है।
इस प्रसंग का महत्व:
यह प्रसंग समाज के वर्गों में व्याप्त असमानताओं और उनके अनुरूप जीवन के मानदंडों पर कर्ण के प्रश्न को व्यक्त करता है। कर्ण का यह विचार कि जन्म के आधार पर किसी व्यक्ति की क्षमता और स्वभाव का निर्धारण नहीं होना चाहिए, समाज में व्याप्त भेदभाव और असमानता के खिलाफ एक शक्तिशाली संदेश देता है।
कर्ण का यह चिंतन यह बताता है कि एक व्यक्ति की असल पहचान और मूल्य उसकी जाति या जन्म से नहीं, बल्कि उसकी कार्यक्षमता और सच्चाई से तय होनी चाहिए।
विशेषताएँ:
समीकरण और विरोधाभास: कर्ण ने समाज में व्याप्त विरोधाभासों को दिखाया है, जैसे ज्ञान का अभाव एक ब्राह्मण घर में और संपत्ति का अधिक होना एक व्यापारी घर में। प्रश्नात्मक शैली: कर्ण ने सवालों के रूप में समाज की असंगतता और वर्ग व्यवस्था पर टिप्पणी की है। यह प्रश्नात्मक शैली काव्य को अधिक प्रभावी और चिंतनशील बनाती है। रूपक और प्रतीक: “गिरा ज्ञान ब्राह्मण-घर में” और “खड्ग क्षत्रिय-कर में” के माध्यम से कर्ण ने प्रतीकों का प्रयोग किया है, जैसे तलवार को शक्ति का प्रतीक और ब्राह्मण को ज्ञान का प्रतीक माना गया है। दृष्टिकोण और आलोचना: कर्ण का दृष्टिकोण समाज की व्यवस्था और वर्ग विभाजन के प्रति आलोचनात्मक है।
अगला भाग कहा मिलेगा?
अभी कुछ ही दिनों में आएगा मित्र