कवि बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ स्वतंत्रता सेनानी थे। वे गांधी के असहयोग आंदोलन में भाग लिया था और अन्य स्वतंत्रता से संबंधित गतिविधियों में वे सक्रिय रूप से भाग लेते थे। स्वाधीनता आंदोलन में उनकी सक्रियता के कारण कवि को जेल में डाल दिया जाता है। तब कवि कारावास में अपनी यह कविता ‘सदा चाँदनी’ लिखते हैं।Hindi Kavita Sada Chandani.
Hindi Kavita Sada Chandani ‘सदा चाँदनी’ कविता की व्याख्या:
“कुछ धूमिल-सी कुछ उज्ज्वल-सी झिलमिल शिशिर चाँदनी छाई
मेरे कारा के आँगन में उमड़ पड़ी यह अमल जुन्हाई।”
भावार्थ: कुछ स्पष्ट धुंधली-सी सफेद, स्वच्छ शीतकालीन चाँदनी झिलमिल-सी सर्वत्र फैली है। और मेरे करवास के आंगन में आज यह निश्चल, पवित्र चाँदनी उमड़ पड़ी है।
विशेष: कवि जेल में बंद है लेकिन वह स्वयं को प्रोत्साहित कर रहे हैं। यहाँ चाँदनी का अर्थ है, चेतना और उस समय स्वतंत्रता की चेतना तथा स्वाधीनता की भावना भारतीय समाज में फैल रही थी। इसलिए कवि कारावास में रहकर भी आनंदित एवं उत्साहित हो रहे हैं।
“अरे आज चाँदी बरसी है मेरे इस सूने आँगन में
जिससे चमक आ गई है इन मेरे भूलुंठित कन-कान में
उठ आई है एक पुलक मृदु मुझ बंदी के भी तन-मन में
भावों की स्वप्निल फुहियों में मेरी भी कल्पना नहाई,”
भावार्थ: अरे! आज मेरे सूने आँगन में चाँदी के समान चाँदनी (सफेद) बरस रही है। जिसके फलस्वरुप मेरे अस्पष्ट (मन में) रोम रोम में आज चमक (उत्साह) आ गई है। इस चाँदनी के कारण मुझ बंदी (जेल में रहने वाला) के तन (शरीर) मन में भी हर्ष, रोमांच छा गया है। मेरे उमड़ते (ह्रदय में उठाने वाले भाव) भाव फव्वारों में आज मेरी कल्पना भी नहा रही है। अर्थात प्रसन्न है।
विशेष: कवि कहते हैं कि जो आजतक मेरा आँगन सूना था (चेतना जगाने के अनेक प्रयासों के बावजूद लोगों का जागरूक न होना) इसलिए मेरा मन भूलुंठित (अस्पष्ट, Confused) की स्थिति में था। लेकिन अब यह स्वाधीनता की चेतना जाग्रत हो गयी है। इसलिए मेरा रोम-रोम पुलकित हो रहा है। समाज की इस स्वाधीनता की चेतना में अपने कल्पित भाव को आकार देने का प्रयास कर रहे हैं।खड़ी बोली हिंदी में तत्सम शब्दों का प्रयोग हुआ हैदल। जैसे शिशिर, उज्ज्वल, अमल, मृदु, भाव, स्वप्निल आदि।
“मैं हूँ बंद सात तालों में किंतु मुक्त है चंद्र गगन में
मुक्ति बह रही है क्षण-क्षण इस मंद प्रवाहित शिशिर व्यजन में
और कहाँ कब मानी मैंने बंधन-सीमा अपने मन में!
जन-जन-गण का मुक्ति-संदेसा ले आई चंद्रिका जुन्हाई!”
भावार्थ: मैं सात तालों के भीतर बंद हूँ अर्थात कारावास में बंदी हूँ लेकिन बाहर चंद्रमा गगन में मुक्त है। स्वतंत्र है। और इस शीतकालीन समय में मुक्ति की चेतना (स्वतंत्रता) धीरे-धीरे सारी धरा पर प्रवाहित हो रही है। भले ही मुझे कारावास में बंद कर दिया गया है, लेकिन हमने भी अपने मन में कभी बंधन का अनुभव नहीं किया है और न ही मन में कोई सीमा रखी है। यह चंद्र किरण (स्वाधीनता के चेतना) जन-जन-गण (सर्वसाधारण जनता और बुद्धिजीवी वर्ग) के लिए यह चाँदनी (स्वाधीनता के भाव) मुक्ति का एक संदेश लेकर आई है।
विशेष: प्रस्तुत पंक्तियों में कवि कहते हैं कि भले ही मैं कारावास में बंद हूँ लेकिन मैंने स्वतंत्रता की जो चेतना फैलाई है, वह तो इस जेल के बाहर जनता में स्वतंत्र (मुक्त) है। वह स्वाधीनता की चेतना (मुक्ति की भावना) धीरे-धीरे प्रतिक्षण जन-मन में फैलती जा रही है। (प्रसारित हो रही है।) यहाँ मुझे बंदी बनाया जा सकता है, लेकिन मेरी फैलाई हुई आज़ादी की चेतना को बंदी नहीं बनाया जा सकता। कवि स्वयं को कभी पराधीन अथवा बंदी नहीं मानता है। भले ही उसका शरीर बंदी हो। खड़ी बोली हिंदी में तत्सम शब्दों का प्रयोग। जैसे शिशिर, व्यजन, मुक्ति, क्षण, चंद्र आदि।
“मैं निज काल कोठरी में हूँ और चाँदनी खिली है बाहर
इधर अंधेरा फैल रहा है फैला उधर प्रकाश अमाहर
क्यों मानूँ कि ध्वांत अविजित जब है विस्तृत गगन उजागर
लो मेरे खपरैलों से भी एक किरण हँसती छन आई!”
भावार्थ: मैं यहाँ स्वयं काल कोठरी में बंदी हूँ लेकिन बाहर चाँदनी (प्रकाश) खुली हुई है। इधर यहाँ अंधेरा फैल रहा है (कवि के मन की उदासी) लेकिन बाहर असीम प्रकाश (स्वाधीनता की चेतना) फैला हुआ है। कवि कहते हैं कि जब बाहर संपूर्ण गगन (आकाश) प्रकाशमान हो गया है। जो अपराजेय है। (जिसे कभी पराजित न किया जा सके) तब मैं क्यों मानूँ की अंधकार है (अंधेरा) है। लीजिए अब तो मेरे कारावास में चंद्रमा की किरण खपरैलों से छनकर हँसती हुई आ गई है।
विशेष: कवि कहते हैं कि मुझे यहाँ बंदी बना दिया गया है, लेकिन मैंने जो स्वाधीनता की चेतना समाज में फैलाया है, वह तो संपूर्ण समाज में फैल चुका है और फैल रही है। जब समाज में चेतना जागृत हो जाती है, तब वह अपराजय हो जाती है। जब समाज चेतनायुक्त (जागृत) हो जाता है, तो वह अपराजेय हो जाता है। तब मैं क्यों अंधकार (पराधीनता या परतंत्र) की भावना को मेरे मन में पनपने दूँ। देखिए, अब तो मेरे मस्तिष्क में (अवचेतन से) चेतन में स्वाधीनता की भावना जागृत हो गई है। जो असाधारण और अपराजेय है। खड़ी बोली हिंदी का प्रयोग। तत्सम शब्दावली का प्रयोग। जैसे काल, प्रकाश, अमाहर, गगन, ध्वांत आदि।
“मास वर्ष की गिनती क्यों हो वहाँ जहाँ मन्वंतर जूझें
युग परिवर्तन करने वाले जीवन वर्षों को क्यों बूझें
हम विद्रोही, कहो हमें क्यों अपने मग के कंटक सूझें
हमको चलना है, हमको क्या, हो अंधियारी या कि जुन्हाई!
कुछ धूमिल-सी कुछ उज्ज्वल-सी हिय में सदा चाँदनी छाई!”
भावार्थ: जहाँ मन्वंतर (समय मापन की खगोलीय अवधि या मानवता के प्रजनक) समय की गणना करने के लिए तैयार है, तो हम क्यों महीने और वर्षों की गिनती करें? और जो युग को परिवर्तित (परिवर्तन) करने वाले हो, वे क्यों वर्षों पर विचार करें? जब हम स्वतंत्रता सेनानी (विद्रोही) हैं, तब हमें मार्ग पर आने वाले कांटो (संकट) के बारे में क्यों सोचना चाहिए? हमें तो आगे बढ़ाना है। चलना है। चाहे अंधेरा हो या चांदनी हमारा काम ही है कि हम चलते रहें। हृदय में एक कुछ श्वेत-सी, कुछ धुंधली-सी चाँदनी (प्रकाश) हमेशा छाया रहता है। अर्थात हम हमेशा उत्साहित रहते हैं।
विशेष: जब मन्वंतर (मानवता के प्रजनक या मानवता को स्थापित करनेवाले) स्वाधीनता की चेतना को जाग्रत करने वाले इस काम में लगे हो, तब हमें महीनों और वर्षों की गणना नहीं करनी चाहिए। अर्थात जब चेतना फेल रही है, तब समय की गिनती करने की आवश्यकता नहीं है। वह स्वयं समय के अनुसार व्यापक बनती जाएगी। जो व्यक्ति युग को ही मोड देने का संकल्प लिया हो (युग की धारा, विचारधारा को एक नई दिशा देना) उस व्यक्ति को अपने जीवन के वर्षों के बारे में सोचने की आवश्यकता नहीं है। कहिए, जब हम विद्रोही है, (स्वतंत्रता सेनानी) तो हमें मार्ग पर आने वाली विभिन्न विपत्तियों के बारे में क्यों सोचना चाहिए? हमें उन विपत्तियों को क्यों देखना चाहिए? हमें तो इन विपत्तियों (लाठी चार्ज, जेल की सजा आदि) के बारे में सोचना ही नहीं है। हमें तो बस चलना है। आगे बढ़ाना है। अंधेरा हो या चाँदनी (फिर वह स्वाधीनता की चेतना सर्वसाधारण जनता में फैली हो अथवा न फैली हो अथवा फैल रही हो) हमें तो हमारा कार्य करते रहना है। आगे बढ़ते रहना है।स्वाधीनता के भाव (चेतना) हमेशा मेरे हृदय में छाए रहते हैं। हमें तो बस आगे बढ़ना है। आगे बढ़ना है।खड़ी बोली हिंदी में तत्सम शब्दों का प्रयोग। जैसे वर्ष, मास, मन्वंतर, जीवन आदि।
आप यहाँ से कुँवर नारायण द्वारा रचित कविता पगडण्डी की व्याख्या पढ़ सकते हैं
शब्दार्थ:
धूमिल-धुंधला, उज्ज्वल-सफेद, स्वच्छ, झिलमिल– किरणों की हिलते रहने की स्थिति, शिशिर-जाड़ा, शीतकाल कारावास-जेल, अमल-मल रहित, निष्पाप, जुन्हाई-चांदनी, चंद्रमा का प्रकार, बरसी-बरसना, भूलुंठित-अस्पष्ट, Confused, पुलक-हर्ष, रोमांच, मृदु-कोमल, फुहिया-फव्वारा, मंद-धीरे, निज-अपना, व्यजन– पंखा, ध्वांत-अंधकार, अविजित-जिस पर विजय नहीं पाया जा सकता हो, मास-महीना, कंटक-कांटे, चुनौतियाँ, हिय-हृदय, मन्वंतर-समय मापन की खगोलीय अवधि या मानवता के प्रजनक या मानवतावादी विचारधारा को स्थापित कराने वाले, मग-मार्ग।
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